“उड़िशा" इतिहास के भिन्न चरणों ने कभी इसे उद्र कभी कलिंग तो कभी कोशल के रूप में स्वीकार
किया.उड़िया उड़िशा राज्य सरकार की भाषा है तथा भारत के उड़िशा प्रांत में बोली
जानेवाली भाषा है.यह एक पूर्वी इंडो-आर्य भाषा होने के नाते इंडो-आर्य भाषा परिवार की सदस्य भी है.इसे पूर्व मागधी नामक प्राकृत भाषा की वंशज
माना जाता है. आधुनिक
बांगला, मैथिली, नेपाली व असमिया से भी इसका निकट
सम्बन्ध मानागया है. उड़िशा के अलावा पडोसी राज्यों में भी जैसे कि झारखंड,पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ व आंध्र प्रदेश में अल्प
संख्यक आबादी द्वारा स्वेच्छा से बोली जाती है.इसके
अलावा पेशे हेतू स्थलांतरित मजदूर जो गुजरात
के शहरों में बसते हैं या काम करते हैं,उनके द्वारा उड़िया बोली जाती है.
कुछ प्रमुख उड़िया बोलियाँ
इस प्रकार हैं .
पश्चिम बंगाल के मेदिनापुर
जिले में मिदनापुरी उड़िया,बालासोर में बालासोरी उड़िया,गंजाम में गंजामी उड़िया,कालाहांडी में कालाहांडी उड़िया,छत्तीसगढ़ में हल्बी, थत्री उड़िया,संबलपुर में संबलपुरी
उड़िया, सिंहभूमि उड़िया
आदि.कुछ भाषाविदों का मानना है कि छत्तीसगढी,नागपुरी और साद्री
भाषा उड़िया की ही बोली समझी जाती है.आज आधुनिक उड़िया भाषा में ७०% संस्कृत शब्द,२% हिन्दुस्तानी/अरबी/फारसी शब्द, २८% आदिवासी बोली के शब्द पाए जाते
हैं. सन ११०० इसवी से १२०० इसवी के बीच उड़िया
भाषा का विकास हुआ. लिखित उड़िया भाषा का प्राचीनतम उदाहरण मादालापांजी में मिलता
है. उन्हें ताड़ पत्रों पर लिखा जाता था.
सम्पूर्ण उड़िया साहित्य के
साहित्य के इतिहास को पांच कालों में बांटा गया.जैसे १०० इसवी से १३०० इसवी तक का युग
प्राचीन उड़िया युग,१३०० से १५०० इसवी
तक प्रारंभिक मध्य उड़िया युग,१५०० से १७०० इसवी तक मध्य उड़िया युग, १७०० से १८७० इसवी तक नूतन मध्य उड़िया युग व १८७० इसवी के बाद आधुनिक उड़िया युग है.साहित्यिक विकास के
भिन्न चरणों में उड़िया साहित्य अपनी विविधता के रंग लिए विकसित होती रही. १५०० इसवी तक उड़िया साहित्य जिसमें धर्म, देव-देवी के चित्रण ही मुख्य ध्येय
हुआ करता था पर साहित्य तो सम्पूर्ण रूप से काव्य पर ही आधारित था.
उड़िया भाषा के प्रथम महान
कवि झंकड़ के सारला दास रहे जिन्हें उड़िशा के व्यास के रूप में जाना जाता है. इन्होने देवी की स्तुति में चंडी पुराण व विलंका
रामायण की रचना की थी.सारला महाभारत आज भी घर-घर में पढ़ा जाता है. अर्जुन दास द्वारा
लिखित 'राम-विभा' को उड़िया भाषा की प्रथम गीतकाव्य
या महाकाव्य माना जाता है.
आरंभिक काल के बाद सन १७००
इसवी तक का दौर उड़िया साहित्य में पञ्च सखा युग
के नाम से जाना जाता है.दरअसल १४वी सदी के अंतिम समय में ही उड़िया साहित्य रचना
के क्षेत्र में युगांतर उपस्थित हुआ. वस्तुतः जिस भक्ति साहित्य का सृजन हुआ उनमें
ऐसे महान साहित्य की रचना हुई जो कि उड़िया साहित्य में अपने ढंग का निराला साहित्य
है. इस युग का आरम्भ श्री चैतन्य महाप्रभु के वैष्णव धर्म के प्रचार से हुआ. बलराम
दास,जगन्नाथ दास, यशोवंत दास, अनंत दास, व अच्युतानंद दास ;इन पाँचों को पञ्च सखा कहा गया. दूसरे
साहिय की ही भांति इनकी रचनाएँ वैष्णव धर्म पर आधारित थीं.इस युग के साहित्य पर संस्कृत
काव्य शास्त्र का व्यापक प्रभाव पडा है. रचनाएँ संस्कृत से अनूदित होती थी. भावानुवाद
व छायानुवाद का प्रचलन ज्यादा था. धर्म से सम्बंधित विविध विषयों पर संस्कृत काव्य
शैली में लिखी गयी रचनाएँ प्राप्त हुई. इस युग के प्रमुख कार्यों को नजर अंदाज़ नहीं
किया जा सकता.वे हैं - शिशु शंकर दास का उषाभिलाष, देवदुर्लभ दास का रहस्य मंजरी व कार्तिक
दास द्वारा लिखित रुक्मिणी विभा आदि. इनके
अलावा कवि मधुसूदन, भीम, धीवर,सदाशिव जैसे कवि भी काव्य रचनाएँ
की. अतिशय कल्पना के माध्यम से लोक कथा प्रस्तुत की जाने लगी. जन्हेई दास, श्री हरी दास,विष्णु शंकर दास का नाम की उल्लेखनीय
है.इसी बीच सत्रह सदी की शुरुआत होते-होते रामचंद्र पटनायक का" हरवली' उपन्यास का नया रूप सामने आया.संस्कृत
ग्रंथों के व्यापक प्रभाव के कारण पद्य में ही गद्य का प्रणयन मिलने लगा. १७०० इसवी
से १८७० तक उड़िया भाषा में लाक्षणिक भाषा का प्रयोग बढ़ता गया. यह लोक साहित्य न रहा.
इस पर संस्कृत के अलंकार,
रस
का प्रभाव पडा तथा कामशास्त्रीय ग्रंथों का भी सम्मिलित प्रभाव पडा. ये सारे लक्षण
साहित्य के विशाल परंपरा के अंतिम छोर तक ले जा रहे थे. इस समय जो भी है कृतियाँ बनीं
उनका अर्थगाम्भीर्य, भाषा-सौष्ठव, सुन्दर सूक्ष्मदर्शिता व बहुलता की
दृष्टि से अप्रतिम स्थान है.इन कृतियों में हाव-भावों का सजीव व मनोवैज्ञानिक वर्णन
मिलता है. प्रकृति का चित्रण मिलता है. अलंकार की योजना,रस की मधुर व्यंजन,शब्दों के लालित्य का संयोजन देखने
को मिलता है.
कवि-सम्राट उपेन्द्र भंज
इस युग के स्थायी स्तंभ हैं.'ब्रम्हांड -सुन्दरी', 'लावण्यबती', इनकी कृतियाँ हैं.'वैदेही विलास' वह कृति है जिसमें सभी ऋतुओं का वर्णन
है व प्रत्येक अक्षर की शुरुआत 'ब'
अक्षर
से है. यह सभी को चौंका देती है.इनके साथ-साथ
दीनकृष्ण दास का 'रस विरोध, रस कलोल, ब्रजनाथ बडजेना का चतुर विनोद भी
चर्चित रहा. 'चतुर विनोद और समर तरंग विनोदी गद्य
रहे जो ऐतिहासिक कविताओं की साहित्यिक प्रयासों को वर्त्तमान फैशन में शानदार तरीके
से किस प्रकार वहन किया गया है बताते हैं.इसके अलावा परिवार,रीति-रिवाज पूजा-पाठ,आचार-व्यवहार आदि सभी विषयों पर रचनाएँ मिलती हैं.
भाषा का परिमार्जित रूप धीरे-धीरे
सामने आ रहा था.फिर भी गीतिकात्मकता का प्रयोग अधिक था. लोग गीत गाना बहुत पसंद करते
थे. कविसूर्य बलदेव रथ का चम्पू व चंद्रानंद का चम्पू गद्य-पद्य मिश्रित संगीत नाटक
है.इसके अलावा गीतिकाव्य, चौतिसा, चौपदी,पोई गीत तथा भक्त
सालबेग के प्रसिद्ध भजन भी गाए जाने लगे.प्रभु
जगन्नाथ की वन्दना ही सालबेग भजन का ध्येय था.संत भीम भोई जो कि अलख पंथी के निर्गुण
उपासक रहे, उनकी सूची चिंतामणि,निर्वेद साधन व ब्रह्म पालक को कौन
भूल सकता है? इस प्रकार कविताओं के माध्यम से ही
भाषा की शक्ति का विकास हुआ और उसे भावानुकूल मोड़ दिया जाता रहा.
इसी युग में 'पाला' और 'दासकाठिया' का मंचन शुरू हुआ.रचनाएँ विलक्षण हुआ करती थीं. 'पाला' जिसमें चार गायक व एक मुख्य गायक होते हैं जो कि चरित्रानुसार
हाथी,घोडा, सैन्य,राजा,फूल,पत्ते,सभी का चरित्र बखूबी निभाते
हैं. और 'दासकाठिया' गीतिकाव्य माना जाता है जिसमें किसी चरित्र का वर्णन मुख्य पात्र द्वारा किया जाता
है पर उसके द्वारा गाए हुए पदों को तोड़-मरोड़ कर उसका साथी हास्य-रस की सृष्टि करता
है.ये आज भी उतना ही लोकप्रिय है जितना पहले था. इसके अलावा शबर-शबरी नृत्य, केला-केली नृत्य
भी प्रसिद्द है.
मुग़ल शासन से लेकर अंग्रेज
शासन काल तक भाषा का निरंतर विकास होता रहा. सन १८३६ इसवी में पहली बार ईसाई मिशनरीज़
द्बारा उड़िया मुद्रण की सुविधा हुई. औपनिवेशिक काल का यह कार्य मील का पत्थर साबित
हुआ. मुद्रण यंत्र की स्थापना के बाद गद्य के माध्यम से मानो हृदयगत भावनाओं का विकास
हुआ. विभिन्न लेख, पुस्तकें व आलेख
पत्रिकाएँ छपने लगी. सन १८६१ में पहली उड़िया पत्रिका 'बोधदायिनी' बालासोर से प्रकाशित हुई.उड़िया साहित्य
का समर्थन व सरकार की तथाकथित नीतियों की और ध्यानाकर्षण करना ही ध्येय था.पहली उड़िया अखबार 'उत्कल दीपीका' गौरी शंकर राय के संपादकत्व में अपनी उपस्थिति दर्ज
कराई. सन १८६५ में में बंग द्वारा भाषाविलोप आन्दोलन शुरू हुआ.उनका कहना था कि उड़िया
स्वतंत्र भाषा नहीं बल्कि आश्रित भाषा है पर सन १८६६ में कर्मयोगी गौरी शंकर राय ने
इसी पत्रिका के माध्यम से भाषा बचाने का प्रयास किया. 'हितैषिणी' 'उत्कल-दर्पण',संवाद वाहिक' जैसे और भी अखबार थे जिनके माध्यम
से लेख जनता तक पहुंचाए जाते थे व् शोषकों के विरूद्ध आवाज़ बुलंद कर रहे थे.कई भाषा
सुधार आन्दोलन हुए,स्कूलों- कालेजों
की स्थापना की गई.भाषा विकसित होती रही.
उन्नीसवी सदी के मध्य तक
उड़िया का मार्जित सामने आ चुका था. सन १८३५ में सोवियत संघ की स्थापना के बाद उड़िशा
में भी कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन किया गया. मार्क्सवाद के कारण के कारण प्रगतिवाद
युग का पदार्पण हुआ. इस समय 'आधुनिक' सामयिक के सम्पादक
रहे.सचिदानंद चौधुरी व भगवती पाणिग्राही जो सभी को लेखन कार्य के लिए प्रोत्साहन करते
करते रहे. सचिदानंद चौधुरी को उनकी लेखनी हेतु ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला.
उन्नीसवी सदी के मध्य तक
राधानाथ्राय, मधुसुदन राव व फकीर मोहन सेनापति
इन तीनों दिग्गजों के समकालीन दृष्टिकोण ने
उड़िया साहित्य को दिशा प्रदान की। .
इसी युग में जगन मोहन लाला
ने प्रथम उड़िया नाटक 'बाबाजी' लिखा. उमेशचन्द्र
सरकार ने प्रथम पूर्णांग उपन्यास लिखा 'पद्म्माली'. फकीर मोहन सेनापती ने प्रथम क्षुद्र गल्प 'रेवती' लिखा. गोपाल चन्द्र प्रहराज ने प्रथम उड़िया भाषा-कोष लिखा. मधुसुदन दास ने अक्षर
ज्ञान हेतु ' वर्ण बोध' लिखा. फकीर मोहन
सेनापती का उपन्यास 'छ माण आठ गुंठ' बहु चर्चित रहा. जमींदारी अत्याचार व अन्ग्रेज़ी शोषण विरुद्ध लिखी गई इस रचना ने रचना क्षेत्र में क्रान्ति पैदा कर दी
थी.
आधुनिक कविता में डा. मायाधर
मानसिंह, सचिदानन्द राउतराय, कुंजबिहारी दास,प्रभास चन्द्र शतपथी,कालिंदी चरण पाणिग्राही, गोपीनाथ महान्ती,कान्हुचरण महान्ती उल्लेखनीय हैं. सीताकांत महापात्र को उड़िया कविता में उल्लेखनीय
योगदान के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला. उड़िया साहित्य सिर्फ पारंपरिक कविता,कहानी,व उपन्यास तक सीमित नहीं रहा बल्कि इस पर स्वछन्दतावाद
का भी प्रभाव पड़ा.
सन १९३६ में उड़िशा स्वतंत्र
राज्य घोषित हुआ. अथ आधुनिक काल के उत्तरार्ध में
जनता,मजदूर,किसान,मानवतावादी विचारधारा आदि सभी भावों का मिश्रण पाया जाता है. इस युग में उत्कलीय
जातीय चेतना का जागरण हो रहा था. सर्व भारतीय जातीयता बोध की प्रतिष्ठा हो रही थी,मधुसुदन दास द्वारा उत्कल सम्मलेन की नीव रखी जा रही थी. सन १९३६ के बाद उत्कलमणि
गोपबंधु दास का राजनीति में भाग लेना तथा उसके बाद उनकी रचनाएँ उड़िया साहित्य को और समृद्ध बना रही
थी.
प्रमुख लेखकों के रूप में
उमेश सरकार,दिव्यसिंह पाणिग्राही,गोपाल प्रहराज, व कालिंदी चरण पाणिग्राही रहे. आलोचना, निबंध,इतिहास भी सृजन के अंग बनगए. इस क्षेत्र के लेखक रहे प्राध्यापक गिरिजा शंकर रे, प.विनायक मिश्र, प्राध्यापक गौरी कुमार ब्रह्म,जगबंधु सिंह व डा.हरेकृष्ण
महताब.
नाटक,उपन्यास,व पत्रकारिता के क्षेत्र में रमाशंकर राय व गौरीशंकर
राय का भी योगदान है. गोदाबरीश मिश्र द्वारा लिखित 'अर्धशताब्दी र उड़िशा' में अंग्रेजों के शोषण विरुद्ध लिखा गया है.इसके अलावा
समाज, धरित्री,प्रजातंत्र आदि पत्र-पत्रिकाओं का
योगदान भी कम नहीं रहा.
भाषा साहित्य को समृद्ध करने में महिला साहित्यकारों
की भी लम्बी सूची रही है.सन १९७५ में संपादित 'सूचिका' पत्रिका नारी चेतना को भूमिका प्रदान करती है.जयंती रथ,सुष्मिता वागची,पारमिता शतपथी,हिरंय्मयी मिश्र,चिर श्री, इंदिरा सिंह, सुप्रिया पंडा,गायत्री शराफ,ममता चौधुरी इस युग की कथा लेखिका
रहीं. कुंतला कुमारी साबत ने नारी स्वाधीनता के बारेमें लिखा और अंग्रेज सरकार से पुरस्कृत
भी हुई थी. सरोजिनी साहू साहित्य के क्षेत्र में अपराजेय मानी जाती है. प्रतिभा राय को कौन नहीं जानता. इन्होने
उड़िया में 'जाज्ञसेनी' लिखा जो द्रौपदी के नाम से अनूदित हुई है.आपको ज्ञानपीठ
पुरस्कार से समानित भी किया गया है.
आधुनिक युग के शंकरलाल पुरोहित,डॉ.राजेन्द्र प्रसाद मिश्र सफल अनुवादक
हैं जिनकी वजह से कम से कम १५० से भी ज्यादा साहित्येतर कृतियाँ अनुदित होकर हिन्दी के माध्यम से अन्य भारतीय भाषा
तक पहुँच रही हैं. उड़िया साहित्य विश्व स्तर
तक पहूंचाने का श्रेय अनुवादकों को जाता है. विडम्बना यह है कि आज के यंत्र चालित युग
में साहित्य पढना तो दूर संवाद भी न हो तो मनुष्य रह लेता है . आज के इस युग में लेखकों के द्वारा, लेखन के लिए लेखकों का लेखन ही बनकर
न रह जाए. पाठकों की वृद्धि कैसे हो इस पर विचार अत्यंत आवश्यक है.
आज हम सब को इंटरनेट के यूनी
फॉण्ट के आभारी हैं जिनकी वजह से किसी भी भाषा
का साहित्य विश्व भर में पहुँच रहा है. यूनीकोड से जो लिप्यान्तरण हो रहा है उस से
आप किसी भी भाषा की रचनाएँ आँय भाषाओं में
पढ़ सकते हैं . आज उड़िया भाषी भी पीछे नहीं हैं. आज वे अपने साहित्य की महक को विश्व
भर में पहुंचा रहे हैं . इसके अलावा www.wikiisourse.com
से भी आप मदद ले सकते हैं.
2 comments:
ओडिया भाषा की उत्पति इतिहास और साहित्य पर लिखा हुआ यह आलेख अतुलनीय तथा हिंदी पाठकों की जानकारी के लिए अनुपम है। डॉ पूर्णिमा केडिया 'अन्नपूर्णा' ,भूतपूर्व रीडर,रांची विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित शोध ग्रन्थ 'ओडिया और हिंदी रीति साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन की तरह ही सुनीता जी का यह कार्य हिंदी पाठकों के लिए न केवल वरदान साबित होगी वरन भारतीय भाषा ओडिया के कथाकारों को एक नई धरती प्रदान करेगा जो उनकी साहित्यिक विरासत को अमरत्व प्रदान करेगी।
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