Thursday, January 22, 2015

भूटान ! बहुत याद आओगे तुम.. (भाग-१ )


कुछ लिखूँ इससे पहले धन्यवाद रवीन्द्र  प्रभात जी ! मुझे भूटान से मिलाने के लिए। आज भूटान में बिताए समय  के बारे में अनिर्वचनीय अनुभूति को शब्दों की शक्ल देने की नाकामयाब प्रयास करने जा रही हूँ ।


ईश की अनुभूति....
प्रकृति और मैं....मैं भाषा और प्रकृति परिभाषा. कुछ कहना चाहती थी मैं,दिल खोलना चाहती थी वह , तभी तो दे गई थी उधार....जानते हैं क्या? हा हा हा । सच्ची ! मेरी तरह अनुव कीजिए न ... मन को लुभाती हवा की खुशबू, इतराती फूलों की महक, पंखुरियों पर हीरे–सी जड़ी ओस की बूँदें..कलियों की घूँघट खोलती प्रभात की किरणें । क्या मौसम, क्या पानी मुझ पर थी उसकी मेहरबानी ..आह वह ताजगी ! मानो इंजार था किसी वृक्ष की शिखा को एक दृष्टि की कि मन-मंदिर के किवाड़ पर सारी  घंटियाँ एक साथ बज उठे। है न ? प्रकृति का यह स्वतछंद स्वरूप प्रफुल्लित जीवन का निष्छल सार नहीं तो और क्या है ? मन करता है उसके  संग रहूँ, उसका साथ न छोड़ूँ, उस पर सोलूँ, आसमान को ओढलूँ, उसकी महक से खुद को महकालूँ , उसकी रक्षा करूँ, उससे प्यार करूँ...धनी असीम! धन्य असीम!  अनंत व्याप्ति और अद्भुत आनंद की अनुभूति कराने हेतु आंतरिक धन्यवाद ईश !
मेरी सहचरी 

ओए भूटान ! आई रिएलि मिस यू 

जैसे ही तुम्हारे पास आई थी, याद है ? पीड़ा से पस्त रीढ़ की हड्डी को सुस्ताने की राहत में  थकी हुई देह को लेकर एयरपोर्ट पर ही लेट गई थी तुम्हें भेंट गई थी ?तुम्हें बिन बताए  तुम्हारी सारी चेतना को समे ली थी? तभी तो ठंडी हवाओं के खिलाफ होकर उसे चिढ़ाती हुई मैं सुबह-सुबह भागी रही थी सिर्फ और सिर्फ तुमसे मिलने ? वरना वंचित रहती तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श से जीवित देह के साथ तुम से लिपटने से.. आदि – अनुभूति की परिक्रमा से गुजरती मैं तुमसे प्यार कर बैठी। मन की आँखों से निहारती  रही, सौंदर्य-सुधा रूपी जीवन रस के अंतिम कण तक पीती रही, गीतों में गुनगुनाती रही, छंदों में ढालती रही....
चल न दोनों कहते हैं....
धन्यवाद परिकल्पना !
धन्यवाद प्रभात जी !


ऊर्जा ग्रहण करती मैं :-)


अविस्मरणीय स्मृति...

परिकल्पना की ओर से भूटान की राजधानी थिंफू में आयोजित चार दिवसीय चतुर्थ अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन (15 से 18 जनवरी तक) में भाग लेने हेतु इच्छुक मैं, 14 तारीख की शाम को ही कलकत्ता पहुँच गई थी । पुणे से बंगलोर तथा बंगलोर से कलकत्ता तक वायु मार्ग से  सफर के दौरान आसमान से सहयाद्री का दर्शन कर पाना किसी सुखद अनुभूति से कम नहीं था । असीम ने  शायद यहीं से मेरा पीछा जो किया था J खूबसूरत वादियाँ, हरे-भरे जंगल से घिरी घाटियाँ, सब भीड़-भाड़ से दूर कुदरत के साथ बिलकुल शांत और बादलों को एकदम करीब पाना सपने से कम न था।




 कलकत्ता पहुँच कर एवेरग्रीन संपदेवी मुरारका जी से मुलाक़ात हुई। तय हुआ कि शाम में दक्षिणेश्वर स्थित काली मंदिर जाएँ। मुरारका जी के सुपुत्र राजेश जी और सम्पत देवी के संग चल पड़ी रामकृष्ण परमहंस को स्वयं दर्शन देनेवाली जगत जननी काली माँ के पास। कहा जाता है 1855 में 9 लाख रुपए की लागत से रानी रासमणि ने यह मंदिर बंधवाया था। दर्शन भए, नैनन को सुख मिला। लगा गंगा के शीतल जल ने कलुषित मन को पावन  कर दिया और भूटान के  पावन निर्मल जल से मिलाने का वादा जो कर लिया।


कलकत्ता में हुई तीन यादगार मुलाकातें..... 
दक्षिणेश्वर से लौटते हुए पहली मुलाक़ात सम्पत देवी जी के मित्र श्री नथमल जी केडिया से  हुई। 91 वर्षीय श्री नाथमल केडिया  जी गांधीवादी हैं, हिन्दी प्रेमी हैं, आज भी कवि-सम्मेलन में हिस्सा लेते हैं । उनके गुजरे हुए पल की दास्ताँ सुनते-सुनते जी खुश होगया। उनकी कविता ---


मैं गीत रचूँ...
मैं गीत रचूँ तुम गाओ / प्रिये! मधुर कंठ से सुधा-धार बरसाओ।
थिरक उठे धरती का कण-कण / रस विभोर हो जाए हर मन 
नदी,सरिता,झरनों की गति में / चरैवेति का हो शुभ दर्शन 
तुम इनकी भावना-वीण पर प्रणव – मंत्र को गाओ
प्रिये! तुम्हारे मधुर-कंठ से सुधा-धार बरसाओ ।

इस कविता को सुनकर मेरे हृदय –गुफा के अंदर धरती भी मेरे साथ नर्तन कर रही थी।


अगले दिन सुबह दमदम हवाई अड्डे पर हम तीनों और साथ में  नित्यानन्द पांडे जी , शुभदा पांडे जी ,मनोज पांडे जी, सर्जना शर्मा, निशा सिंह, उर्वीजा , आलोक  सभी प्रभात जी के साथ हवाई अड्डे पर पहुँच गए थे ।
दूसरी मुलाक़ात हुई बार्बरा से ...इम्मीग्रेशन लाइन में खड़ी अमेरिका निवासी जिज्ञासू मिसेज बारबरा प्रीस्ट ने हम सभीको देख कर आखिर पूछ ही लिया था हम कौन हैं और कहाँ से आए हैं ...जैसे ही उन्हे पता चला कि हम साहित्य से जुड़े हुए हैं तुरंत खुश होकर A World Of Poetry’ (Edited by American Poetry and Literary Project ) की किताब  मेरे हाथ में थमा दी। और यह भी कहा कि कविता के प्रति एवं साहित्य के प्रति रुझान बढ़ाने हेतु यह किताब बांटी जाती रही । आज से तुम हकदार हो ..
पन्ने पलटे तो सामने दीख गई एक कविता....


On the mountain: A conversation  
You ask
Why I perch
On  a  jade  green mountain?
I laugh
But say nothing
My heart free
Like a peach blossom
In the flowing stream
Going by
In the depths
In another world
Not among men


समझ गई थी ...सुन सुनीता तेरी तरफ असीम की ओर से इशारे ही इशारे हैं।  अब न समझेगी तो कब समझेगी।

तीसरी मुलाक़ात अनोखे व्यक्तित्व की धनी  भूटान की  श्रीमती थीनले लम्हा से हुई। उस असीम की इच्छा ही थी कि जिस रिसोर्ट में हम रुकनेवाले थे उसी की मालकिन ही नहीं बल्कि सार्क समिति आफ विमेन आर्गनाइजेशन  की चेयर पर्सन भी रही है से मुलाक़ात करवा दिए।


चित्रों से परे दृश्य और अनुभव  


भूलोक के मुकुट हिमालय की गोद में बसा, भारत एवं चीन के बीच में स्थित दक्षिण एशिया का छोटा-सा पर महत्वपूर्ण आदर्श राज्य भूटान । शांति और सुख के सब मानकों पर सबसे आगे। हवाई जहाज से भूटान  का नजारा देखते ही दिल झूम उठा । आठ हजार फुट की ऊंचाई से गुजरती सड़कें, घना जंगल, गहरी घाटियाँ, पतली रेखा-सी नदियाँ, आस-पास मँडराते बादल, सभी मिलकर मुझे उकसा रहे थे चल ऊष्मा को ग्रहण कर ले वरना ठंड में सिकुड़ जाएगी । 



मैं ग्रहण कर चुकी थी । भूटान की सर जमीन पर  हम सभी कदम रख चुके थे। जैसे ही एयरपोर्ट पर उतरे तो ऐसा लगा किसी मठ में आ गए।छोटे-से हवाई अड्डे में राजा-रानी के अलावा कोई होर्डिंग नहीं था। ऐसा कोई विज्ञापन नहीं था जिससे लगे कि वस्तुओं को खरीदने के लिए अपील की जा रही हो। एक पोस्ट बॉक्स दिखा कि तुरंत सरकारी डाक बाबू (यादव जी ) उत्साह से भर गए। फोटो खिंचवाने के बाद हम सभी ने सिम कार्ड खरीदे और बस से थिम्फू की ओर चल पड़े। रास्ते में अचानक शुभदा पांडे जी ने अपनी सुरीली आवाज में गीतों  की तान छेड़  दी फिर क्या था हम सभी सुर में सुर मिलाकर अंत्याक्षरी पर उतर आए और यह गाने का सिलसिला 19  किलोमीटर  तक जारी रहा। नित्यानन्द पांडे जी और शुभदा जी की जुगल बंदी भी क्या खूब रहा !
  

पारो द्ज़ोंग्खग के पास सभी चाय पीने उतरे। इंडो-भूटान फ़्रेनशिप प्रोजेक्ट का बोर्ड सामने दिख रहा था । वाङ्ग्चू नदी के पास खड़े नजारे मन मोह रहे थे।

यहाँ पहला कुत्ता दिखा। बड़ा प्यारा था। सेब, संतरे ताजी सब्जियाँ, लाल मिर्च, लाल मूली सभी बिक रही थीं। शुभदा जी ने दौड़ कर किसी बच्चे से टोकरी उठा लाए और हम सभी उस टोकरी को उठाने आतुर। मैंने वहाँ पर खड़े सिपाही से पूछा जोंग का मतलब क्या होता है, उसी ने कहा , यहाँ मठों को झोंग कहा जाता है और प्रत्येक नगर में एक झोंग होता है।


थिम्फू की ओर जाते समय रास्ते में हमने देखा कि सड़क की दोनों ओर चीड़ और फ़र की वृक्षावली हमारे इंतजार में आँखें गड़ाए खड़े हैं । मैंने उन्हे वैल्कम कहते हुए सुना था। ऊपरी ढाल में चारों ओर से जंगल घिरे हुए थे। पर्वत की चोटियाँ कहीं-कहीं 7000 मीटर से भी ऊंची दिखाई दे रही थी। ज़्यादातर आबादी मध्यवर्ती हिस्सों में रहती प्रतीत हो रही थी । लग-भग 70% हिस्सा वनों से  ही आच्छादित है।


राजधानी थिम्फू में प्रवेश मात्र से ही हम सक्रीय होकर देखते रहे और देखते ही रह गए कि  नियम और कानून के प्रति अनुशासित होने के कारण सड़कों पर अनुशासन भी साफ नजर आ रहा था।सिम कार्ड रीचार्ज कराने उतरे तो देखा कि पार्किंग में खड़ी गाड़ियों के लिए बॉक्स पैंट किए हुए हैं  ताकि सलीके से खड़ी की जा सके। यहाँ महंगी से महंगी गाड़ियों की  कमी न थी। सड़कें खुली व चौड़ी थीं, फुटपाथ खुले थे। रीचार्ज करने के बाद हमारे हाथ में भूटान के नोट भूटानी मुद्रा नोङ्ग्तृम और भारतीय रुपया एक बराबर है।फिर बस में चढ़ गए। 

चारों तरफ फैला  सुंदर नजारा,बाँह फैलाती डालियाँ, घुमावदार साफ-सुथरी सड़कें आखिर हमें वांगचुक रिज़ॉर्ट- टाबा में पहुँचा  ही दिए।  कमरे ब्लू पाइन की लकड़ी से निर्मित थे। टाबा की  आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित इस  रिज़ॉर्ट में अपनी परंपरा और संस्कृति के प्रति प्रेम भी झलकता था। प्राचीन जंगल की सात एकड़ जमीन का विस्तार लिए यह रिज़ॉर्ट भूटान के पारंपरिक अंतरंगता का प्रतीक है। दिन चढ़ा था। भूख लगी थी। कमरे में गए कि ठंड से सिकुड़ा पाया। पहाड़ी इलाका होने के कारण सर्दी भी अधिक थी। कमरे में देखा तो  सर्दी से राहत पाने के लिए इलेक्ट्रोनिक उपकरण था यानि बुखारी लगी हुई  थी। टीवी, हेयर ड्रायर, व्यक्तिगत रूप से नियंत्रित हीटिंग , फोन, लांड्री सेवा, विदेशी मुद्रा विनिमय, हस्त-शिल्प शो रूम, इन्टरनेट का उपयोग, भारतीय, चीनी,महाद्वीपीय भोजन की सेवा, मिनी बार सभी तरह की सुविधाएँ थी। यहाँ तक की आध्यात्मिक खोज हेतु रिज़ॉर्ट परिसर में स्थित लेराब चोलिंग गोएंपा मठ पर ध्यान भी किया जा  सकता है।  
लगभग तीस थके-हारे-भूखे ब्लॉगर खाने पर टूट पड़े थे सच भूखे पेट भजे न गोपाला...


वहाँ पर मेरे परिचित मित्र ललित जी को देख कर खुशी की सीमा न रही,  श्रद्धेय के.के यादव जी आदरणीय वरिष्ठ गिरीश जी के स्नेह से भीगती मैं प्रकाश हिन्दुस्तानी जी, राम बहादुर मिश्र जी, रणधीर सिंह  सुमन जी , ओम प्रकाश जयंत जी, विष्णु कुमार शर्मा जी, विश्वंभरनाथ अवस्थी जी, अरविंद देशपांडे जी, गगन शर्मा जी से परिचित होती रही ।दाल फ्राई, मिक्स्ड़ वेजीटेबल , गोभी-आलू,पापड़, दही, मिठाई, रायता से पेट पूजा का शुभारंभ रहा। बासु जी ने सबके मन पसंद खाना जो बनवाया था। भारतीय लोक संस्कृति की वाहिका कुसुम जी मेरे साथ रूम में थी, सभी ने लंच किया और चल दिए थिम्फू के बाजार में ख़रीदारी करने....

 जंगलों का साम्राज्य, दूर-दूर तक फैला नीला गहरा रंग, बीचों-बीच बहती थिम्फू चू, नदी की दाई ओर ढाल में बसा, बिभिन्न मंत्रालय, सरकारी ऑफिस और बाज़ारों से घिरे शहर  के ऊपर की ओर जंगलों के बिचों-बीच रानियाँ व उनके परिवार वालों के लिए महल और आवास  रात में रंग-बिरंगी लाइटों से जगमगाता  दिखाई दे रहा था।  

बाजार में कहीं कोई ट्राफिक लाइट नहीं, न ही सिग्नल। सड़क के दोनों ओर मकान एक जैसे बने हुए हैं। छोटे-बड़े मकान हो या राज महल, जोंग हो या मंदिर हो, होटल हो या दुकान हो सब जगह पेंटिंग से सजावट किया गया था।  मकान की वास्तु कला भी एक समान, कहीं भी किसी भी प्रकार की लापरवाही नहीं। 


इमारतों की साज-सज़्जा पारंपरिक तौर- तरीके 
से एक जैसे रंग से की गई थी।  भूटानी लोगों का अपनी संस्कृति और परंपरा के प्रति प्रेम इसी से झलक रहा था यह साफ समझ में आ रहा था।  

बाजार में देखा महिलाएँ ही अधिकतर दुकानें संचालन कर रही थी । उनमें सामान बेचने की आतुरता मैंने नहीं देखी। आश्चर्य महसूस हुआ। हंडिक्राफ्ट्स की दुकानों की भरमार थी परंतु चीजें इतनी महंगी कि खरीदने से पहने मन सोचने पर मजबूर हो जाता था। मैंने एक दुकान पर बैठी महिला से पूछा भी था कि ये इतने मंहगे क्यूँ है ? उसका उत्तर था , मंहगी  होने के कारण कोई खरीदता नहीं, टेक्स बहुत देना पड़ता है इसलिए भी चीजें मंहगी हो जाती हैं।



हम
भारतीयों  के लिए वे कुछ चीजें सस्ती कर देती हैं। और उसने  यह भी कहा कि जिसे खरीदना है वे खरीदते हैं बाकी तो दाम पूछकर ही छोड़ देते हैं। हमें आदत हो गई है इसलिए हम दबाब नहीं डालते । वैसे तो भूटान की  स्थानीय भाषा द्जोंखा है फिर भी हिन्दी भाषा, इतिहास व संस्कृति के वे दीवाने हैं। मैंने पूछा हिन्दी कैसे बोल लेते हैं आप लोग तो जवाब मिला टी व्ही पर आनेवाले सिरीएल देखना वे ज्यादा पसंद करते हैं । भारतीय संस्कृति पर आधारित कार्यक्रम देखना पसंद करते हैं। इसलिए अधिकांश लोग हिन्दी बोल और समझ सकते हैं।


ललित जी को कमेरा के  लिए रेचार्जेबल बैटरी खरीदना था। उनके पैर में चोट लगी थी। चलना मुश्किल  हो रहा था उनके लिए। और मुझे अपनी बिटिया के लिए लेदर जाकेट खरीदना थ। मैं अपनी धुन में मस्त , व्यस्त। दो  दिन  में बिटिया का जन्मदिन  और मैं उससे दूर, मन उदास होने लगा था । बहुत देर तक इंतजार किया उस सूखे पेड़ के नीचे ताकि सभी इकट्ठे हों फिर बस की  ओर बढ़ें इतने में यादव जी और राजेश जी का फोन आ गया था कि सभी बस में मेरा इंतजार कर रहे हैं । मन फिर भी नहीं माना। भागकर वापस उस पेड़ तक पहुंची तो गिरीश जी को पाया उन्हे लेकर हम वापस बस  की ओर लपके। देर से पहुँचने के कारण माफी चाहूंगी सबसे ...



रात को सभी खाने की  मेज पर मिले, दरअसल मेरे पैरों में तकलीफ हो रही थी, अत्यधिक चलने के कारण एक नस में दर्द  था, थोड़ा आराम किया , भूटानी परिधान पहन कर फोटो खिंचवाया और फिर महफिल का हिस्सा बने। कुसुम जी लोक गीत गा रही थी, ललित जी अपनी पुरानी कविता सुना रहे थे, विष्णु कुमार शर्मा जी, ओम प्रकाश जी , रणधीर सिंह सुमन जी ने अपनी कविता सुनाई और विश्वंभर नाथ अवस्थी जी,गगन शर्मा जी ,गिरीश जी , सूर्य शर्मा जी , सर्जना जी, मनोज जी , प्रभात जी, राम बहादुर मिश्रा जी , समर बहादुर जी, अशोक गुलशन जी  और मैं हम सब सुन रहे थे। हलाकी  खाने में फ्राइड राइस स्टफ़ पोटैटो , पनीर मंचुरियन स्वीट सभी था पर मैं कॉर्न सूप पीकर ही संतुष्ट  हो गई थी।  ठंड के कारण पेट में हल्का-सा दर्द था। रात को कुसुम उदास बैठी थी, मैंने पूछा था क्यूँ , जवाब मिला सुनीता,प्रधान मंत्री जी तो भारत में हैं कल के अतिथि कौन होंगे?मैंने कहा , परेशान न हों कल सुबह पता चल ही जाएगा ।    


अगला दिन  सम्मलेन का दिन ..... क्रमश: 


6 comments:

Unknown said...

Wow ur a brilliant writer..!!! Congratss fly high. .!!

संपत देवी मुरारका said...

बहुत सुन्दर, सुनीता जी.

अन्तर सोहिल said...

बढिया और विस्तृत रिपोर्ट
हम चूक गये, मलाल रहेगा इस सम्मेलन में भूटान ना जा पाने का

प्रणाम स्वीकार करें

अन्तर सोहिल said...

अगली कडी का इंतजार है

Dr. sunita yadav said...

Thank you prachi!

धन्यवाद संपत जी !
अंतर आप आते तो अच्छा लगता।

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

पहले दिन का क्रार्यक्रम तो अच्छे से बीत गया। पर मारे ठंड के हमसे कुछ खाया नहीं गया। पानी के दो घूंट लेते ही दांत कनकनाने लगते थे। वैसे भूटान बहुत ही सुंदर देश है और यहाँ के नागरिक इतने ही सभ्य हैं। आगे बढिए, हम भी साथ साथ चल रहे हैं।

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