Tuesday, February 10, 2015

भूटान ! बहुत याद आओगे तुम ..... भाग (3)


    

पर्यटन दिन....



रात की निर्जनता का सृजन करनेवाले असीम से बातें हो रही थी । बस एक दिन और प्राकृतिक सुरम्यता के दिव्य वातावरण के सुंदर संगम में प्राण प्रवाह के इस तरह लह- लहाने की प्रखर अनुभूति से परिचित कराने हेतु शत-शत नमन!
सुबह हुई। सामान पैक किया। नाश्ते के बाद हम निकल पड़े।  पर्यटन स्थल देखते- देखते पारो जानेवाले थे। बस से नीचे उतरते समय पर्वत श्रुंखलाएँ दिव्य अनुभूति    प्रदान कर रहे थे। बस में बैठे-बैठे पल भर का ध्यान भी असीम शांति दे रहा था। 

प्रकृति का मनोरम दृश्य चित्त को आल्हादित ही नहीं कर रहा था बल्कि हरियाली स्नेह सद्भावना का एहसास करा रहा थी। हमारे साथ गाइड बनकर कुमार आए थे। देखते-ही-देखते  हम पहुँच गए किसी किले की तरह दिखाई देनेवाले चंगङ्घा ल्हाखंग मंदिर में। कुमार कह रहे थे कि यहाँ  नियमित रूप से लोग आते हैं। विशेषतः पालक अपने नवजात शिशुओं को , युवा बच्चों को बच्चों  के रक्षक देवता टैमड्रीम से आशीर्वाद ग्रहण कराने आते हैं। कुमार ने यह भी  कहा कि बारहवीं शताब्दी में तिब्बत के रालुंग से फाजो ड्रूक्गोम शिगपो नमक लामा ने इस जगह को धार्मिक स्थल के रूप में चुना और यहाँ पर इस मंदिर की स्थापना हुई। बहुत से लोग अपने बच्चों को लेकर आ रहे थे। सुंदर-सुंदर प्यारे –प्यारे, गोल-मटोल बच्चों को देख कर मातृत्व उमड़ रहा था। दिल से दुआएँ निकाल रही थीं। 


वहाँ से हम सीधे पहुँचे ताकिन संरक्षणवाड़ा में। वैसे तो थिम्फू के आसपास की पहाड़ियाँ ब्लू पाइन के विकासमान जंगलों से आच्छादित है। वांग चू  नदी के किनारे इन्हीं  जंगल के बीचोंबीच ताकिन संरक्षणवाड़ा है । ताकिन  को भूटान का राष्ट्रीय पशु रूप में अपनाया गया है। इस पशु के आगे का भाग एक बड़े बकरे की  तरह है और पिछला हिस्सा गाय की तरह। ऐसे अद्भुत जानवर के बारे में गाईड कुमार का कहना था सन 1455 के आस-पास एक चमत्कारी लामाजी को एक दिन गाय और बकरी की हड्डियाँ बिखरी पड़ी मिली थी। उन्हे चमत्कार दिखाने को कहा गया था। तभी लामा ने बिखरी हड्डियों को जोड़ दिया और जैसे ही प्राण का संचार किया वह जंगल की ओर भाग गया। ये ताकिन उसी के वंशज बताए जाते हैं। है न मजेदार बात ? यहाँ पहुँचते ही फोटो सेशन शुरू हो गया ।
 धूप छन-छन गिर रही थी। न जाने गगन जी, सर्जना जी, विश्वंभर जी, कुसुम जी किसे ढूँढ रहे थे। अशोक जी और  ललित जी बतिया रहे थे, अदिति और के.के जी सैलानियों के साथ फोटो खिंचवा रहे थे, प्रभात जी, मनोज जी, कुसुम जी , ॐ प्रकाश जी सभी जब फोटो खिंचवा ही रहे थे तभी  अचानक मैंने देखा एक कुत्ता एक बकरी दोनों एक जगह आराम फरमा रहे हैं। सोचा थोड़ा मैं भी सुस्ता लूँ ? ताकिन घूम रहे थे। मैंने बात करने का प्रयास किया पर वो क्या है  न मेरी भाषा उन्हे समझ में नहीं आई। पर मैंने उनसे वादा किया अगली बार आऊँगी तो हम  घंटों बातें करेंगे। 
         
 निकाल पड़ी बस... थिम्फू के केंद्र में स्थित सन 1974 में बना नेशनल मेमोरियल चोर्टेन में तीन स्लेट नक्काशियों के साथ सजाए गए फाटक के अंदर जब प्रवेश किया तो  सामने देखा  सुनहरा शिखर,  छोटा-सा बगीचा,एवं चारों तरफ परिक्रमा करते भूटानी लोग, अद्भुत वास्तुकला और बाईं ओर बड़े-बड़े प्रार्थना पहिए। दौड़ कर गई पहिए घुमाई, चोर्टेन की परिक्रमा कर आई। लकड़ी के तख्ते पर सोकर दंडवत किया। दृष्टि चारों तरफ गई तो देखा चार  खंबों के ऊपर बैठे सिंह की मूर्ति में जंजीर  बंधा हुआ है और ये सभी मंदिर की चोटी तक बंधे हुए हैं। गाइड बदल चुके थे। 







पाशांग ने राज बताया प्राचीन काल में यह मंदिर उड़ जाया करता था इसीलिए  ये चारों स्नो लायन बनाया गया ताकि वे प्रहरी के समान बैठे रहें। बाई ओर ढेर सारे कबूतर थे, मन किया मैं भी उड़ूँ। काश ! मेरे भी पंख होते न मैं भी उ जाती J





दुनिया में कितने होनहार लोग पैदा हुए जिन्हे सारी दुनिया के सामने अपना ज्ञान, अपनी बुद्धि, अपने हौसले को दिखा पाने का मौका मिला। कितने भाग्यवान पैदा हुए जिन्हे इनकी कृतियों की प्रशंसा करने का सौभाग्य प्राप्त  हुआ। मैं होनहार न सही भाग्यवती हूँ लकी हूँ जी लकी जिसे यह सब देखने का जानने का मौका मिला। बस में गाते –बजाते पहुँचे  थिम्फू घाटी के दक्षिणी तरफ स्थित संगी गाँव के  कुएंसेल फोड्रंग नेचर पार्क में। यहाँ पर शोभित  शाक्यमुनि की डोरडेनमा प्रतिमा दुनियाके सबसे बड़ी और ऊंची प्रतिमाओं में मानी जाती है और यह  बुद्ध पॉइंट के नाम से मशहूर भी है। सर्द हवा, सिर पर धूप, शाक्यमुनि का चमकता सौम्य रूप! 169 फुट (51.5 मीटर) की ऊंचाई लिए यह विशाल प्रतिमा ब्रोञ्ज की बनी है परंतु इस पर सोने का पानी चढ़ाया गया है। बुद्ध के शरीर के अंदरूनी हिस्से के तीन मंजिलों में कई पूजास्थल हैं जो कि 100,000 आठ इंच की और 25000, 12 इंच की बुद्ध मूर्तियाँ से भरा हुआ है । 


 इस अद्भुत प्रतिमा को देखकर मन द्रवित हो गया। लगा मुझसे कह रहे हों...उन जैसे बनो जिनकी आत्मा प्रकाशित है, उन जैसे बनो जिनकी आत्मा आश्रय-स्थल है, मेरा एक बंधु खो गया,क्या तुम उसका स्थान लेना पसंद करोगी? पर मैं चुप क्यूँ थी ? सवाल अन्तर्मन को झिंजोड़ रहा था । मोह-माया, इच्छा-काम से भरपूर मैं क्या वितरागी बन सकती हूँ? क्या मेरी आत्मा भी प्रकाशित हो सकती है? आज भी मेरे सामने वही प्रश्न है क्या कोई समझा सकता है ?




पारो की ओर प्रस्थान

थिम्फू और उसके आस-पास की स्मृतियों को सँजोकर पारो की ओर जा रहे थे । पहाड़ के गोल-घुमावदार रास्ते और मेरे मन का अंतर्द्वंद दोनों साथ-साथ चले। तभी नित्यानन्द जी कविता सुना रहे थे ...
जिसको किसी बुजुर्ग का साया नहीं मिला
उसको हमारे गाँव  का बरगद दिखाई दिया ...


सच क्या  भगवान गौतम बुद्ध को कोई बुजुर्ग नहीं मिला होगा  जिसकी वजह  से उन्हे  पीपल के नीचे बैठना पड़ा था?  

ललित जी सुना रहे थे ...
अपना दर्द आँसुओं से  निचोड़ती रही कविता
कई बरसों से किताबों में सोती रही कविता
आँसू लहू बन कागज पर झरते रहे
दर्द  को दिल में ही  सँजोती रही कविता
दर्द  को दिल में ही  सँजोती रही कविता.....


क्या ये शताब्दी का झंकार है? शब्द की प्यास है ? दुख मूल कारण है पीड़ा का ? इंसान प्रेम पाकर दुखी होता है या प्रेम खोकर ? आत्म –परमात्म का यह मिलन है या बिछड़न ?


कुछ ही किलोमीटर में थिम्फू-चू और पारो-चू के संगम (छाजम) के पास थे। तीनों तरफ से घाटियों से फैला बीचों-बीच पारो चू नदी, ऊपर की ओर हरे-भरे घने जंगल, नदी किनारे आकर्षक झोंग सभी कुछ सामने थे...


भूटान के राष्ट्रीय - सांस्कृतिक संग्रहालय में पहुँचे तो सभी आगे चले गए थे.... पैर की उंगली की नस चलने नहीं  दे रही थी। सर्जना जी ने मेथी के दाने सेलो टेप में लगा कर पट्टी बांध दिए । चलने लायक हो गई थी। भूटान के 1500 से भी अधिक साल के सांस्कृतिक विरासत को सहेजे हुए , 3000 से भी ज्यादा भूटानी कला के बेहतरीन नमूने, मूर्तियाँ, भूटान की संस्कृति, जीवन- शैली,ग्रामीण- परिवारों की कलाकृतियों के अलावा ग्रामीण परंपरा,आदर्शों, कौशलों का संरक्षण करता यह संग्रहालय ललित कला, पेंटिंग, वस्त्र,आभूषण, हस्त शिल्प,टिकटें,बुद्ध के धार्मिक स्कूल आदि पेश करता है। समय बीत चला। आस-पास के नजारे तन  की थकान को राहत दिला रहे थे। तस्वीरें ली गई और मैं बस में बैठ गई थी। 




फिर हम चले पारो घाटी में स्थित  7वीं सदी में तिब्बत के राजा सोङ्ग्त्सेन गेंपो द्वारा बनवाया गया क्यीचू ल्हाखांग मंदिर की ओर बढ़े...पाशांग ने कहा यह सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। भूटान में सबसे पहले यहीं से बौद्ध धर्म की शुरुआत हुई। इस जगह को आध्यात्मिक खज़ानों का भंडार माना जाता है। तीर-कमान हाथ में लिए तारा देवी, गुरु रिनपोचे, साथ ही अंदर सातवीं सदी के शाक्यमुनि का भव्य मूर्ति सब कुछ आश्चर्य –सा प्रतीत हो रहा था। प्रतिमाओं की ओर देख दिल को तसल्ली मिली। बाहर देखा दो संतरे के पेड़  हैं जिन पर  साल भर फल आते हैं... मान गई कभी मेरे भी मन के बगिए में भक्ति के संतरे साल-भर उगेंगे। हे गुरु देव! मुझे रास्ता दिखाइए ! 

बाहर बादल हमें चूमने बेताब थे ....हवा चलने लगी, यहाँ कुछ ज्यादा ही ठंड महसूस हो रही थी। पारो की मार्केट की ओर बढ़े। शाम का समय था ।



देखा आस-पास कोई दुकान नहीं जहां से मैं कुछ मीठा खरीद सकूँ .... बिटिया न जाने क्या कर रही होगी, मम्मी जी क्या कर रही होंगी, पति देव को मेरी अनुपस्थिति खलती भी होगी या फिर सुकून की ज़िंदगी जी रहे होंगे मन  में न जाने क्या-क्या चल रहा था ..। विचारों को विराम मिला जब  ओलाथांग के पेलरी कॉटेज में पहुँचे।

           देखा आस-पास कोई दुकान नहीं जहां से मैं कुछ मीठा खरीद सकूँ .... बिटिया न जाने क्या कर रही होगी, मम्मी जी क्या कर रही होंगी, पति देव को मेरी अनुपस्थिति खलती भी होगी या फिर सुकून की ज़िंदगी जी रहे होंगे मन  में न जाने क्या-क्या चल रहा था ..। विचारों को विराम मिला जब  ओलाथांग के पेलरी कॉटेज में पहुँचे।  





पहुँचते ही मैं और कुसुम कमरे की  चाभी संभालते हुए भागे। कमरे से नजारा खूबसूरत था। दूर ऊँची पहाड़ियाँ , चमकती चोटियाँ , उतरते बादल , हवा की ठंडक बाप रे ! -6 की ठंड ...हम दोनों घुस गए रज़ाई के अंदर ।



थोड़ी देर बाद खाना खाकर, प्रभात जी के आतिथ्य से गद-गद  होकर  फोटो के अदला-बदली कर पहुँच गए सर्जना जी के कमरे में ...मित्रों यह कहना चाहूँगी कि सेल्फ हील क्या होता है यह उनसे जाना हमने। सूजोक पद्धति  की ज्ञाता  सर्जना जी ने  बच्चों  में स्मृति-शक्ति  को सुधारने, उच्च-रक्तचाप का नियंत्रण, कब्ज, साइनस, मधुमेह आदि रोगों के इलाज के सरल उपचार बताए। रात बहुत हो गई थी। हम दोनों कमरे में आकर सो गए। सोने से पहले कुसुम ने सोहर गीत, बिदाई गीत, मिलन गीत गाए...सुनते-सुनते सो गई थी मैं, सुख-निद्रा में खो गई थी मैं।

अगले दिन सुबह का नजारा कैद किया, सब से भावभीनी बिदाई  लेते हुए पारो हवाई अड्डे की ओर प्रस्थान किया । खिड़की से झाँका पर्वत श्रुंखलाएँ ओस से भीगी हुई थी,  दूर एवरेस्ट की पर्वतमालाएँ  सत्य को जानकर भी अंजान बनी हुई थीं।  वे पिघल नहीं पाईं, मन भीगा था  पर मन चला था, चलने लगा था घर की ओर, अपनों की ओर, कुछ पाकर , कुछ खो कर, अपना अस्तित्व ढूँढते हुए,असीम  द्वारा पूछे गए सवालों के साथ, शब्दों में वर्णित तथ्य नहीं अनुभूति जन्य सत्य के साथ  .....ओ राही, ओ राही ...ओ राही, ओ राही ......







सुनीता यादव    


8 comments:

Unknown said...

एक बेहतरीन यादगार..... जय हो ..

Prakashhindustani@bloggspot.com said...

बहुत ही सुन्दर यात्रा वृत्तांत!

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

राजकुमार गौतम को (रोगी, वृद्ध एवं मृतक को देखकर वैराग्य जागृत हुआ) बुजूर्ग ही मिला था, जिसके कारण उसे पीपल के नीचे बैठना पड़ा और बुद्धत्व की प्राप्ति कर शिष्यों में उपसम्पदाएं बांटी। सुंदर पोस्ट।

अन्तर सोहिल said...

खूबसूरत

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

सर्द वादियों से आई एक गुनगुनी बयार

Krishna Kumar Yadav said...

सुंदर वर्णन। स्मृतियों को फिर से ताजा कर दिया। साधुवाद।

राजीव शंकर मिश्रा , बनारस वाले said...

खुबसूरत ...

ratnesh said...

बहुत सुन्दर लेखन मैम

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