भावनाओं का प्रस्फूटन : यात्रा-वृत्त ब्लॉग के संदर्भ में
भाव का स्वरूप
जिस प्रकार हम अगर कोई कविता पढ़ लेते हैं या सुनते हैं या फिर कोई नाटक या फिल्म देखते हैं तब प्रसंगानुसार कोई न कोई भाव हमारे मन में उत्पन्न होने लगता है जैसे प्रेम,क्रोध,हर्ष, करुणा आदि वैसे ही जब किसी मन को मोहने वाला स्थान या दृश्य को देख लेते हैं तब भी कई मनोदशाएँ मानसिक भावनाएँ स्थूल वर्णन को साकार करने के लिए छटपटाने लगते हैं। यात्रा के दौरान हम जो कुछ भी अनुभव करते हैं उसे वाणी के सहारे पूर्णतया अभिव्यक्त नहीं कर सकते। स्वप्न की स्मृति बनती रहती है, अज्ञात अवस्था में स्थित यह भाव उपयुक्त अवसर पर जब जाग उठते हैं तब अनूभूति शब्द खोजने लगती है,मन कल्पना करने लग जाता है, किसी के चरणों में झुक जाता है, इच्छाएँ आलिंगन की भाँति मधुर प्रेरणा बनकर अंतस को स्पर्श करती है,अंतर पुलकित हो उठता है और उसका आनंद विशाल का रूप लेकर सभी अनुभवों का अतिक्रमण करके विराट की अनुभूति भी करा देता है...... है न मन को छूने वाली बात ! इन सारी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने हेतु शब्दों का बेहतरीन जामा की खोज में पिपासित आत्मा न जाने कितनी बार उन सभी स्थानों पर बार-बार हो आती है। और उसकी यही अभियक्ति की छटपटाहट सबके सामने भाव के स्वरूप को प्रस्तुत करती है।
भावों की उत्पत्ति
मनुष्य जीवन और भावों की उत्पत्ति के संदर्भ में जरा सोचें तो कहना न होगा कि अकेलेपन से समष्टिगत जीवन जीने की स्थिति में मनुष्य का जीवन विकास, भावस्थिति और स्वभाव आदि आते रहे। दुर्गा दीक्षित के अनुसार “…आरंभिक स्थिति में भय, क्रोध, काम, आश्चर्य, सुख–दुःखादि भाव शारीरिक चेष्टाओं एवं आंगिक क्रियाओं द्वारा व्यक्त होते थे परंतु इन भावों के मानसिक स्तर प्राप्त करने पर उनकी अभिव्यक्ति संकेतों, ध्वनियों और मुख पर अभिव्यक्त भंगिमाओं द्वारा की जाने लगी।“1 सुख-दुख अनुभव करने के साथ-साथ मनुष्य के जीवन में भय, काम, क्रोध और आश्चर्य का भाव अस्तित्व रूप से था ही पर सामूहिक जीवन में दया, करूणा,सहानुभूति,विस्मय,घृणा,चिंता, प्राथमिक रूप में जगने लगी थी। धीरे-धीरे द्वेष, ईर्ष्या, ,उत्साह, आवेग, अमर्ष, आवेशादि भाव पनपने लगे। सामाजिक जीवन की स्थिरता ने ही वात्सल्य, स्नेह, सख्य भक्ति आदि के साथ ही आदर, लोभ, मित्रता, सहानुभूति, सहिष्णुता और मानवता आदि भावों को जन्म दिया। सामाजिक जीवन के विकास की दिशा में ही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय प्रेमभावना का उदय हुआ। भक्ति में इसी प्रेम और श्रद्धा का सम्मिश्रण रूप दिखाई देता है।
इस प्रकार सामाजिक विकास का प्रभाव मनुष्य की भावाभिव्यक्ति पर पड़ा। समय, स्थिति और सामाजिक संदर्भ के बदलने से भावों के प्रेरकों की वृध्दि के साथ अभिव्यंजना में अंतर आया। भाषा के व्यवहार शब्दों द्वारा अभिव्यक्त क्रोध, भय, उल्लास दुःख की तीव्र अभिव्यक्ति कम कर के संयम एवं विवेक की स्थिति प्रदर्शित करने लगा।
भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशाष्ट्र में भाव
आचार्य भरतमुनि द्वारा रचित नाट्यशाष्ट्र में भाव को लेकर बहुत कुछ वैज्ञानिक तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है। भरत मुनि के सूत्र के अनुसार भाव के चार प्रकार होते हैं- विभाव,अनुभाव,संचारी एवं स्थायी भाव। ह्रदय की अनुभूतियों को तरंगित करनेवाले निमित्त या
कारण ही विभाव है । निम्मित भाव के तीन पक्ष है आलंबन ,जिसके आधार से कोई मानसिक भाव जागृत होता है; उद्दीपन, आलंबन की चेष्टाओं को अधिक तीव्र बनानेवाला वातावरण ;आश्रय, जिसके अन्तर्गत स्थायी भाव या अन्य भावों का प्रकाट्य होता है। अंतस्थ भावों को प्रकट करनेवाले अंगविकार, शारीरिक चेष्टाएँ आदि अनुभाव कहलाते हैं जो सात्विक या कायिक हो सकते हैं। स्थायी भाव के साथ संचरण करनेवाले भाव संचारी कहलाते हैं।एक संचारी भाव कई रसों के साथ देखा जा सकता है। संचारी भाव में मन और शरीर की सभी अवस्थाओं का अंतर्भाव हो जाता है। स्थायी भाव मनुष्य के आधारभूत अंग हैं। भरत मुनि ने रति,हास, शोक,क्रोध,उत्साह,भय,जुगुप्सा,और विस्मय आदि आठ स्थायी भावों का उल्लेख किया लेकिन बाद में निर्वेद और वात्सल्य भी जोड़े गए। इस तरह दस स्थायी भाव स्वीकृत किये गए। यही सारे स्थायी भाव आखिर रस की स्थिति को प्राप्त करते हैं।
भावों की व्याख्या
भावों को लेकर बहुत सटीक व्याख्याएँ भरतमुनि के बाद अनेक आचार्यों ने प्रस्तुत की है। डॉ.भगीरथ मिश्र ने भाव के बारे में कहा है कि भाव की स्थिति एक प्रकार का स्पन्दन मात्र है, पूर्ण क्रिया की स्थिति नहीं।भाव को आनुभूतिक संस्पर्श के रूप में देख सकते हैं जब कि रस पूर्ण एवं मुक्त क्रियाशीलता की स्थिति है। भरतमुनि के अनुसार भाव रस की सामग्री है।स्थायी भाव हमारे चित्त में हमेशा विद्यमान रहते हैं । इसी को समझाते हुए डॉ.माधव सोनटक्के जी कहते हैं "रस के अनुकूल विकार को भाव कहते हैं। ये विकार चित्त की विभिन्न वृत्तियाँ हैं जो मानव-जन्म के उपरांत समय और स्थिति के प्रभाव से उदवृद्ध होती रहती है।" काव्यशास्त्र में बताए गए भाव का मनोवज्ञानिक अध्ययन करते हुए डॉ.राकेश गुप्त ने कहा कि जिस प्रस्तुति के प्रति प्रमाता की चेतना रम जाती है उसके प्रति वह भावनात्मक प्रतिक्रिया करने लगता है और यही प्रतिक्रिया रसास्वाद है।
आखिर ये भाव स्थायी और अस्थायी वृत्तियों का ही तो नाम है। ये भाव विचारों की अपेक्षा अधिक सम्प्रेषणशील होते हैं। “अभिव्यक्ति की छटपटाहट भाव की मूल प्रकृति है।संभवतः इसलिए इसे अँग्रेजी में Emotion कहा जाता है। इस शब्द का विग्रह करने के बाद E और Motion बन जाता है।E का अर्थ है बाहर और Motion का अर्थ है गति। अतः Emotion का अर्थ हुआ जो बाहर की ओर गतिशील हो।“2 सशक्त और सुंदर भावाभिव्यक्ति अगर बुद्धि से नियंत्रित हो, कल्पना से प्रभावित हो तो वह कोरी भावुकता नहीं कहलाती क्यों कि कल्पना और विचार भावों के लिए आधारभूमि प्रस्तुत करते हैं,उन्हे स्पष्ट रूप में समझाते है तथा सृजक के दृष्टिकोण को रूपाकार प्रदान करते हुए उसे सम्प्रेषणशील बनाते हैं.....
ब्लॉगिंग
सृजन की विधाएँ अनंत हैं। सूचना तकनीकी के विकास के दौर में सृजन और अभिव्यक्ति के साधनों का विकास होता रहा। लेखन विकास के दौर को पार करते हुए इंटरनेट की दुनिया में प्रवेश किया एवं सृजन एवं अभिव्यक्ति के सशक्त माध्यम के रूप में ब्लॉगिंग आया। आज ब्लॉगिंग एक क्लिक में सारी दुनिया को सीमित कर लेने की सक्षमता रखते हुए अकुंठ संघर्ष चेतना तथा सामाजिक-साहित्यिक एवं संस्कृतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने हेतु अपने बल पर अपनी प्रतिबद्धता के साथ सक्रीय है। विचारों को आमजनता तक पहुंचाने के लिए एक सफल माध्यम बनकर आया जहाँ अभिव्यक्ति पर कोई बंदिश नहीं । प्रकाशक की आवश्यकता धीरे-धीरे खत्म होने लगी और पोस्ट और पेस्ट काम आने लगा। अपने विचारों को डिजिटलिकरण करते हुए स्वतंत्र ब्लॉग के माध्यम से आज साहित्य ब्लॉग ,म्यूजिक ब्लॉग, मीडिया पोर्टल,विडियो पोर्टल, प्रोजेक्ट ब्लॉग,कारपोरेट ब्लॉग, आदि तेजी से बढ़ रहा है। कोई अनुभव लिखता है, कोई फोटो डालता है, कोई साहित्यिक रचनाएँ प्रस्तुत करता है । आज ब्लॉग के क्षेत्र में नया ट्रेंड बनकर संगीत की दुनिया में पॉड़कास्टिंग,मल्टी मीडिया के रूप में विडियो ब्लॉगिंग, ब्लॉग के विकल्प के रूप में ट्विटर यानि माइक्रो ब्लॉगिंग का जमाना है। विषय संबंधी ब्लॉग जैसे भी सामने आए जैसे राजनीति, सामाजिक, अध्यात्म, दर्शन, धर्म, संस्कृति, जीवन शैली, स्वास्थ्य, विज्ञान, इतिहास, चिकित्सा, यात्रा आदि।
भावाभिव्यक्ति यात्रा- वृत्त -ब्लॉग के संदर्भ में
भावाभिव्यक्ति और सृजनात्मकता को लेकर देखें तो आज-कल ब्लॉग लेखन की प्रवृत्ति अति लोकप्रिय है। यात्रा-वृत्त ब्लॉग को भी प्राथमिकता दी जा रही है। अन्तर्जाल पर स्थित ब्लॉगों पर लिखे गए यात्रा-वृत्त को हम आज के सन्दर्भ में क़तई उपेक्षित नहीं कर सकते। तथा उस पर स्थित यात्रा-वृत्त भी कम महत्त्व के नहीं हैं। यात्रा के क्रम में बहुत आकर्षित करनेवाले स्थान का सम्बन्ध जानकारी से नहीं होता है बल्कि सम्बन्ध मनुष्य के भाव-बोध तथा सौन्दर्य-बोध से होता है। वे हमें आकर्षित करते हैं इसलिए हम अपनी प्रतिक्रियाएँ व्यक्त करते हैं। आइए देखते हैं यात्रा-ब्लॉग में भावों की अभिव्यक्ति कैसे की गई है। पाठकों की प्रतिक्रिया कैसी रही ...
आरंभ में मैंने अपना ही ब्लॉग को टटोला उसमें से एक यात्रा वृत्त का उदाहरण पेश करने का प्रयास किया; यानि सुनीता प्रेम आदव का ब्लॉग ‘प्यास’6 पर प्रकाशित भूटान यात्रा के तीन भागों में “भूटान ! बहुत याद आगे तुम” शीर्षक के अंतर्गत विभिन्न भाव, अनुभावों को महसूस करने व कराने का प्रयास किया ।
अनुभाव : जैसे ही तुम्हारे पास आई थी, याद है? पीड़ा से पस्त रीढ़ की हड्डी को सुस्ताने की राहत में थकी हुई देह को लेकर एयरपोर्ट पर ही लेट गई थी तुम्हें भेंट गई थी ?तुम्हें बिन बताए तुम्हारी सारी चेतना को समेट ली थी? तभी तो ठंडी हवाओं के खिलाफ होकर उसे चिढ़ाती हुई मैं सुबह-सुबह भागी आ रही थी सिर्फ और सिर्फ तुमसे मिलने? वरना वंचित रहती तुम्हारे स्नेहिल स्पर्श से जीवित देह के साथ तुम से लिपटने से.. आदि – अनुभूति की परिक्रमा से गुजरती मैं तुमसे प्यार कर बैठी। मन की आँखों से निहारती रही, सौंदर्य-सुधा रूपी जीवन रस के अंतिम कण तक पीती रही, गीतों में गुनगुनाती रही, छंदों में ढालती रही....
सात्विक अनुभाव : सुबह का नजारा कैद किया, सब से(प्रकृति ) से भावभीनी बिदाई लेते हुए पारो हवाई अड्डे की ओर प्रस्थान किया । खिड़की से झाँकापर्वत श्रुंखलाएँ ओस से भीगी हुई थी, दूर एवरेस्ट की पर्वतमालाएँ सत्य को जानकर भी अंजान बनी हुई थीं।
हर्ष : लिखती हैं.. प्रकृति और मैं....मैं भाषा और प्रकृति परिभाषा. कुछ कहना चाहती थी मैं,दिल खोलना चाहती थी वह , तभी तो दे गई थी उधार....जानते हैं क्या? हा हा हा । सच्ची ! मेरी तरह अनुभव कीजिए न ... मन को लुभाती हवा की खुशबू, इतराती फूलों की महक, पंखुरियों पर हीरे–सी जड़ी ओस की बूँदें..कलियों की घूँघट खोलती प्रभात की किरणें । क्या मौसम, क्या पानी मुझ पर थी उसकी मेहरबानी ..आह वह ताजगी ! मानो इंतजार था किसी वृक्ष की शिखा को एक दृष्टि की कि मन-मंदिर के किवाड़ पर सारी घंटियाँ एक साथ बज उठे। है न ? प्रकृति का यह स्वतछंद स्वरूप प्रफुल्लित जीवन का निष्छल सार नहीं तो और क्या है ?
मोह : मन करता है उसके संग रहूँ, उसका साथ न छोड़ूँ, उस पर सोलूँ, आसमान को ओढलूँ, उसकी महक से खुद को महकालूँ , उसकी रक्षा करूँ, उससे प्यार करूँ...धनी असीम! धन्य असीम! अनंतव्याप्ति और अद्भुत आनंद की अनुभूति कराने हेतु आंतरिक धन्यवाद ईश !
आश्चर्य : बाजार में देखा महिलाएँ ही अधिकतर दुकानें संचालन कर रही थी । उनमें सामान बेचने की आतुरता मैंने नहीं देखी। आश्चर्य महसूस हुआ।
हर्ष : भूलोक के मुकुट हिमालय की गोद में बसा, भारत एवं चीन के बीच में स्थित दक्षिण एशिया का छोटा-सा पर महत्वपूर्ण आदर्श राज्य भूटान । शांति और सुख के सब मानकों पर सबसे आगे। हवाई जहाज से भूटान का नजारा देखते ही दिल झूम उठा ।
औत्सुकता,जिज्ञासा : इस अद्भुत प्रतिमा को देखकर मन द्रवित हो गया। लगा मुझसे कह रहे हों...उन जैसे बनो जिनकी आत्मा प्रकाशित है, उन जैसे बनो जिनकी आत्मा आश्रय-स्थल है, मेरा एक बंधु खो गया,क्या तुम उसका स्थान लेना पसंद करोगी? पर मैं चुप क्यूँ थी ?सवाल अन्तर्मन को झिंजोड़ रहा था । मोह-माया, इच्छा-काम से भरपूर मैं क्या वितरागी बन सकती हूँ? क्या मेरी आत्मा भी प्रकाशित हो सकती है?आज भी मेरे सामने वही प्रश्न है क्या कोई समझा सकता है ?
वात्सल्य : बहुत से लोग अपने बच्चों को लेकर आ रहे थे। सुंदर-सुंदर प्यारे –प्यारे,गोल-मटोल बच्चों को देख कर मातृत्व उमड़ रहा था।
इस अद्भुत प्रतिमा को देखकर मन द्रवित हो गया।
इस अद्भुत प्रतिमा को देखकर मन द्रवित हो गया।
करुणा भाव : क्या ये शताब्दी का झंकार है? शब्द की प्यास है ? दुख मूल कारण है पीड़ा का ? इंसान प्रेम पाकर दुखी होता है या प्रेम खोकर ? आत्म –परमात्म का यह मिलन है या बिछड़न ?
हिन्दी यात्रा-ब्लॉग-दुनिया में शिखा वार्ष्णेय एक बुलन्द नाम है। इनके मशहूर ब्लॉग ‘स्पंदन’7 के ‘वेनिस की एक शाम’ में शिखा जी शहर की खूबसूरती के बारे में भाव प्रकट करती हैं...
आश्चर्य भाव : उत्तरी इटली का एक छोटा- सा शहर वेनिस- लगभग १७७ छोटे -छोटे द्वीपों से घिरा हुआ, जिसकी खूबसूरती किसी हसीन पेंटिंग की तरह लगती है, कल्पना से कोसों दूर हम कहाँ ये सोच सकते हैं कि कोई शहर ऐसा भी है जहाँ सड़क ही नहीं है. पानी है सिर्फ पानी... सारी सुविधाएँ है जैसे-टैक्सी ,बस पर सब पानी में चलती है। (वाटर टैक्सी ,वाटर बस) आपको कहीं भी जाना है शहर में, यही एक मात्र साधन हैं आपके पास या फिर पैदल चलिए। कहीं परियों के देश सा कुछ एहसास होने लगता है। यह शहर इस दुनिया का तो नहीं लगता ...
एक और मशहूर ब्लॉगर है ललित शर्मा जी । अपना ब्लॉग ‘ललित डॉट कॉम’8 पर ‘तेरहवीं सदी में नारी क्रांति : कलिंग यात्रा’ में अपने भावों को तथ्य के साथ प्रस्तुत करते है –
“तेरहवीं सदी में स्त्री द्वारा ऊंची एड़ी की खड़ाऊ धारण करना क्रांतिकारी ही माना जाएगा। अभी तक तो पुरुषों द्वारा ही खड़ाऊ धारण की जाती थी। पाश्चात्य युरोप के देशों में भी सोलहवीं सदी तक स्त्रियों द्वारा ऊंची एड़ी के जूते धारण करने की शुरुवात भी नहीं हुई थी। इससे एक बात तो निकल कर सामने आती है कि स्त्रियों को इस सदी तक पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे तथा पुरुष उनके आदेश की अवहेलना नहीं कर सकते थे....प्रतिमाओं से एक बात और निकल कर सामने आती है कि स्त्रियों परदा नहीं करती थी। किसी भी प्रतिमा में परदा या घुंघट दिखाई नहीं देता।“
ब्लॉग जगत में समीरलाल ‘समीर’ को भला कौन नहीं जानता समीरलाल जी का यात्रा-वर्णन तथा प्राकृतिक सौन्दर्य का अंकन बड़ा ही रोचक होता है। ‘उड़नतश्तरी’9 ब्लॉग में ‘बड़ी दूर से आए हैं...ब्लॉगर मिलने!!!’ लन्दन यात्रा का वर्णन करते हुए वृत्त में वे लिखते हैं-
हर्ष :‘‘रास्ता आरामदायक, दर्शनीय और ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ फ़िल्म के सरसों के खेत की याद दिलाता मज़ेदार था।
शंका : बादलों के बारे में शंका भाव देखिए... “शायद सूरज से पूर्व में समझौता करके आए थे कि बस कुछ देर घेरकर बैठे रहेंगे और फिर निकल जाएंगे। बरसे बरसाएंगे नहीं। सिर्फ़ जनता को बरसात का मनोरम सपना दिखाएंगे।’’ इसी यात्रा-वृत्त में एक और जगह लिखा है -‘‘खिड़की के बाहर नज़र पड़ी तो देखा बादल सूरज द्वारा खदेड़े जा रहे हैं। लगा कि पूर्व समझौते के अनुसार न हटकर जनता यानी मेरी पसन्द देखते हुए अनशन पर डटे रहने से जैसे ख़फ़ा सूरज ने लाठीचार्ज करवा दिया हो। कोई बादल कहीं भागा, कोई कहीं कूदा, कोई कहीं काले से सफ़ेद बादल का भेष बदल कर भागा। बादल भी न! समझते नहीं हैं- उनका क्या है आज हैं कल नहीं होंगे। सूरज को तो हमेशा रहना है।
अपने चीन यात्रा –संस्मरण ‘न दैन्यम न पलायनम’10 के चीन यात्रा - भाग 1 प्रवीण पाण्डेय जी के मन में भी शंका उत्पन्न हुई थी सभ्यता को लेकर भाषा को लेकर... “चीन का संदर्भ आते ही मन में क्या कौंधता है? दो पुरानी सभ्यतायें, सदियों की संस्कृति का आदान प्रदान, जनप्लावित दो देश, विश्वविकास को खींचते विश्व के दो बाजार, बौद्धिकबल से संतृप्त दो देश, पंचशील, १९६२ का युद्ध, सीमा पर तनाव, अकसाई चिन। समझ में नहीं आ रहा था कि किस पूर्वमनस्थिति से चीन को समझा जाये। विकास की अग्रता में उसकी विस्तार की उग्रता को कैसे समझा जाये? यद्यपि मेरे लिये रेलवे द्वारा प्रदत्त ३-४ विषयों को समझना ही पर्याप्त था, पर उपरोक्त पक्ष मन में भला कहाँ शान्त रह पाते हैं?
हास्य भाव - युवा लेखक नीरज जाट अपने ब्लॉग ‘मुसाफ़िर हूँ यारों’11 में प्रकाशित श्रीखण्ड महादेव यात्रा से एतद् सम्बन्धी एक उदाहरण प्रस्तुत है-‘‘सावन का महीना हो, हिमालय पर घूमने जा रहे हों वह भी आठ दिनों के लिए और बारिश न हो, बिल्कुल असम्भव बात है।...चारों ने अपनी-अपनी बरसाती पहन ली। जैसे ही नितिन बाइक पर बैठा तो उसकी फट गई। साथ ही विपिन की भी फट गई। और फटी भी पैरों के बिल्कुल बीच से। बस तभी से सबकी ज़ुबान पर ‘फट गई’ बस गया और वापसी तक भी पीछा नहीं छोड़ा। और जिनकी फटी थी वे बन्दे भी इतने मस्त थे कि नारकण्डा जाकर होटल वाले से सुई माँगी तो यही कहकर कि ‘भईया हमारी फट गई है, सुई-धागा दे दो।’ अब ऐसे में कोई कितना भी मुँह फुलाए बैठा हो चेहरे पर मुस्कान तो आ ही जाएगी।’’
इनकी भाषा वैसे तो विवरणात्मक ही है किन्तु मज़ाक़िया लहजे में लिखने की वजह से पूरी यात्रा हँसी-ख़ुशी करा देते हैं। पैदल जितना सफर ये करते हैं शायद ही कोई लेकिन गौमुख यात्रा- गंगोत्री से भोजबासा में अपने भाव प्रकट करते हुए लिखते हैं...
आलस्य भाव- “नतीजा यह होता है कि शरीर के सब अंग धीरे धीरे शिथिल पडने लगते हैं, कहने लगते हैं कि हम काम नहीं करेंगे। हमें ऑक्सीजन दो। जब पैर भी, हाथ भी... सब अंग मना करने लगते हैं तो चीफ कंट्रोलर दिमाग सिंह को भी मंजूरी देनी पडती है। उस हालत में हम चाहते हैं कि बैठ जायें, लेट जायें और पडे रहें। कोई हमें खुद ही उठाकर ले जाये। आनन्द आता है पडे रहने में। अपने साथ जो पत्रकार साहब चल रहे थे, वे भी पूरी तरह खत्म थे। पैरों ने बिल्कुल मना कर दिया। वो तो दिमाग उनका पत्रकार का था, आसानी से माना नहीं पैरों की बात... विरोध ही करता रहा.. इसलिये चलते रहना पडा। मैं भी थोडा सा आराम करके जितनी शक्ति जुटाता, एक कदम बढाते ही सब खत्म।“
‘हिन्दी कविताएं आपके विचार’12 ब्लॉग पर राजेश कुमारी द्वारा प्रकाशित दो यात्रा-वृत्तान्त ‘कश्मीर से लेह लद्दाख़ तक’ तथा‘लेह लद्दाख़ से चुमाथांग हॉट स्प्रिंग 14000 फीट की झलकियां’ उल्लेखनीय हैं इन यात्रा-वृत्तान्तों में सम्बन्धित गन्तव्य स्थलों के प्राकृतिक सौन्दर्य का सचित्र मनोरम वर्णन किया गया है। लेह लद्दाख़ से चुमाथांग हॉट स्प्रिंग यात्रा-वृत्त में कारगिल की ओर बढ़ते समय अपनी मनोदशा का वर्णन करते हुए लेखिका ने लिखा है कि-
अद्भुत भाव - चुमाथांग के हॉट स्प्रिंग का वर्णन करते हुए लेखिका लिखती है कि- ‘‘अज़ीब अद्भुत क़ुदरत का नज़ारा था। ज़मीन के नीचे से उबलता हुआ पानी चल रहा था। पास नदी बह रही थी। उसके किनारे बहुत सारे ऐसे पॉइंट थे जहां से उबलता हुआ पानी निकल रहा था। कहीं-कहीं पानी उछल कर निकल रहा था। वह पानी प्राकृतिक मेडिसिन का काम करता है। पीने से पेट के रोग का निवारण होता है तथा नहाने से त्वचा ठीक रहती है। चुमाथांग का अर्थ ही है औषधि वाला पानी।’’
उत्सुकता :- अपने ब्लॉग ‘मुसाफिर हूँ यारों’13 के ‘डायमंड हार्बर क्या एक बन्दरगाह है ’वृत्त में में मनीष जी के मन में उत्सुकता है डायमंड हार्बर के बारे में ...लिखते हैं “डायमंड हार्बर-.....
बचपन में भूगोल की कक्षा में पहली बार इस जगह का नाम सुना था और तब से लेकर आज तक मैं यही सोचता था कि कोलकाता का मुखी बन्दरगाह यही होगा। हीरा तो वैसे ही अनमोल होता है सो डायमंड हार्बर बाल मन से आने प्रति उत्सुकता जगाता रहा।“ इसी ब्लॉग में ‘रंगीलों राजस्थान : रांची से उदयपुर तक का सफर !’में भी उन्होने अतीत में झाँकने की अपने स्वभावगत उत्सुकता के बारे में जिक्र किया है।
‘बस्तर की अभिव्यक्ति – जैसे कोई झरना’१४ ब्लॉग में डॉ. कौशलेन्द्रम चिंता भाव व्यक्त करते हुए लिखते हैं...
चिंता, संशय- मुखपृष्ठ पर ही एक अशुभ समाचार पढ़ने को मिला. रात में सहारनपुर के एक धार्मिक स्थल में कुछ अराजक तत्वों ने बम विस्फोट कर दिया था. पढ़कर मुझे लगा कहीं गोधरा की लपटें यहाँ भी तो नहीं पहुँच गयीं ? क्लांत मन को हिमालय की सुरम्य गोद में कुछ देर के लिए सौंप देने घर से निकला था पर मन अनायास ही और भी क्लांत हो गया. मैं चिंतित हो उठा, सुबह होते-होते कहीं पूरा शहर ही साम्प्रदायिक हिंसा की आग में न जलने लगे. मुझे जयपुर की उस साम्प्रदायिक घटना का स्मरण हो आया जिसके कारण मात्र तीसरे दिन ही अपने सारे भ्रमण कार्यक्रम स्थगित कर मुझे शहर छोड़ना पडा ।
क्रोध भाव : इसी ब्लॉग में क्रोध भाव को दर्शाते हुए लिखते हैं-“एक सत्रह-अठारह वर्ष की लड़की के साथ एक पैंतीस की आयु का गेरुआ वस्त्रधारी साधु वाक् युद्ध कर रहा था. मैंने ध्यान से देखा, इकहरे बदन की वह विवाहिता लड़की युद्धक्षेत्र में मोर्चे पर अकेली ही थी. जबकि प्रतिपक्षी के साथ था पूरा अखाड़ा. साधु उसे बारबार धमका कर भगाने की चेष्टा कर रहा था जबकि लड़की उसे बराबर कोसे जा रही थी. अचानक साधु उठकर खडा हो गया और लड़की की ओर बाहें फटकारते हुए , नारी गुप्तांगों के वर्णन के साथ उसे अश्लील गालियाँ देने लगा. उस तीर्थ क्षेत्र में बाहर से आये श्रृद्धालुओं के लिए ऐसा दृश्य अपूर्व था ...सब चकित होकर देख रहे थे. स्थानीय लोगों के लिए यह मनोरंजन का कार्यक्रम था. हरि का द्वार मुझे साक्षात असुर द्वार लगने लगा था ......कुछ समय पूर्व आई दिव्यत्व की अनुभूति पूरी तरह तिरोहित हो गई ।
तीर्थयात्रियों की भीड़ चारो ओर से मधुमखियों की तरह खिंचकर वहाँ जमा होने लगी. साधु अब तक हिंसक हो उठा था ...लोग किसी मनोरंजक दृश्य की प्रतीक्षा में थे. मैं पशोपेश में था ........लोगों की तमाशाई वृत्ति से मेरा क्रोध भड़क रहा था।
अतः हम देख सकते हैं कि भावों का प्रादुर्भाव किसी व्यक्ति,स्थान या वस्तु के कारण होता है। लेखक और पाठक के के भावात्मक सम्बन्धों पर विचार किया जाए तो पाठक ब्लॉग पर अपनी प्रतिक्रियाएँ लिखते हैं। प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में पाठक भी जुड़ा हुआ होता है अपने भावों की अभिव्यक्ति हेतु ...जैसे कुछ टिप्पणियाँ।
टिप्पणियाँ
स्मृति: सुंदर वर्णन! स्मृतियों को फिर से ताजा कर दिया। साधुवाद। (के.के. यादव -प्यास)
मन मचला फिर से...सुन्दरता से चित्र खींचा है अपनी यात्रा का। याद है मुझे भी ग्रेट गैम्बलर का वो नौका विहार!!(उड़नतश्तरी -स्पंदन)
समीर जी,
अभी आपका लंदन यात्रा का रोचक लेख पढ़ा, स्मृतियाँ पुनः ताज़ा हो आईं। (डॉ.कविता वाचक्नवी- उड़नतश्तरी ब्लॉग )
शंका : यानि की पुराने समय में लोग चप्पल धारण नहीं करते थे तो क्या उनके पैरो में गर्मी की लू नहीं लगती थी?(दर्शन कौर धनोय –ललित डॉट कॉम)
जिज्ञासा,तृप्ति : चीन को जानने की जिज्ञासा बहुत था और अभी भी है ।पर आजकल मिडिया वाले इसके बारे जब भी बताता है तो वहां की सरकार की तनाशाह रवईया और बार्डर पर झड़प की । वहाँ के समान्य जन मानस को जानने की इच्छा तड़पती रह जाती थी । आपका यह लेख बहुत ही तृप्ती देता है हमें ।सादर धन्यवाद ।(कपिल चौधरी –प्रवीणपांडेपीपी डॉट कॉम)
औत्सुकता : -रोचक है। अगले पोस्ट की उत्सुकता हे।( देवेन्द्र पाण्डेय- प्रवीणपांडेपीपी डॉट कॉम)
आश्चर्य : बहुत सुन्दर! मुझे आश्चर्य हे कि अब तक मैने इसे क्यों नहीं देखा?( (डॉ0 अशोक कुमार शुक्ल-मुसाफिर हूँ यारों )
हर्ष : वाह जी मजा आ गया है आज तो सारी यात्रा मजेदार रही है.....
(जाट देवता (संदीप पवाँर)-हिन्दी कविताएँ-आपके विचार )
सुख-दुख : तुम्हारा ब्लॉग पढ़ कर अच्छा भी लगता है और मलाल भी होता है |मलाल ये होता है कि क्यों कर जीवन के इतने साल यूँ ही गुजार दिए ,जबकि दुनिया देख सकते थे |अब मन होता भी है तो नौकरी कि मजबूरियां बाँध लेती है |इतना समय कैसे निकाल लेते हो भैय्या ...अगली यात्राओं के लिए शुभ कामनाएं..(सचिन कुमार गुर्जर –मुसाफिर हूँ यारों )
चिंता : जे सी बाबा जी ! ॐ नमोनारायण ! धर्म रूढ़ हो गया है आज ...परिमार्जन की आवश्यकता है ....समाज में विमर्श ......नवीनता और परिमार्जन का अभाव हो गया है इसलिए आज का धर्म पाखण्ड से अधिक और कुछ नहीं......उच्च शिक्षित भी इसी धारा में बहे चले जा रहे हैं ....सभी को पुण्य चाहिए ....बिना पुण्य का कार्य किये .....ज़रुरत मंद को धेला नहीं देंगे ...मंदिर में सोना चढ़ा देंगे .....हमारे मंदिर आज भी अमीर हैं ....जनता गरीब है ....पहले मंदिरों की समाज के लिए जो भूमिका हुआ करती थी, आज कहाँ है?
(कौशलेन्द्र-बस्तर की अभिव्यक्ति-जैसे कोई झरना )
इस प्रकार हम यात्रा-ब्लॉग या फिर इसे पढ़नेवाले पाठकों की टिप्पणियों के जरिए देख सकते हैं कि भाव शाश्वत है और हमारी चेतना के मूल में सृजन स्वभाव के रूप में स्थापित है। हृदय में स्थित अनेक भावों को जैसे प्रेम-क्रोध, हर्ष-विषाद,भय-घृणा,समय-समय पर निष्काषित करते हुए सृजक अपने अनुभवों को प्रस्तुत करते रहता है।किसी समय की सुखद स्मृति पाठकों को अतुल सुख पहुंचाती हैं जिसे पढ़ते ही मन पुष्पित तरु-सा बन जाता है, सौंदर्य की सुरम्यता में माधुरी निखर जाती है। कभी मन की सारी पीड़ाएँ, दुख-सुख कई कथ्य कह देती हैं तो पाठकों के शब्द निशब्द हो जाते हैं। चिंता कभी गिरि श्रेणी-सा खड़ी हो जाती है तो उठ-उठ कर ,गिर-गिर कर शंका चैन छीन लेती है। आश्चर्य की श्रुखलाओं में चित्त कभी रमण करता है तो तृप्ति की स्थिति में अतुलनीय आनंद का अनुभव करता है।क्रोध मुट्ठी में बंद होने का नाम नहीं लेता तो मोह भूति के आवरण हटाकर पराविभूति के दर्शनाभिलाषा से बेचैन हो जाता है पर भाव उमड़ते हैं और अभिव्यक्ति के साधन ढूँढ ही लेते हैं।
सुनीता यादव
सुनीता यादव
संदर्भ ग्रंथ: (हिन्दी)
1. दुर्गा दीक्षित, रस – सिद्धान्त का सामाजिक मूल्यांकन
2. डॉ. माधव सोनटक्के- साहित्यशास्त्र तथा आलोचना
3. डॉ. भगीरथ मिश्र –काव्यरस: चिंतन और आस्वाद
4. Dr. Rakesh Gupta – Psychological studies in Rasa
संदर्भ ब्लॉग सूची :
12. ‘ हिन्दी कविताएँ: आपके विचार’ :
14. ‘बस्तर की अभिव्यक्ति – जैसे कोई झरना’ :
1 comment:
बहुत सुन्दर सुनीता की अच्छा मार्गदर्शन किया आपने।
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