ऐसा ही एक दृश्य
दृश्य होते-होते अदृश्य हो जाता है
या
फिर उसका अनुभव
बहाने से पहले अनजान हवाओं में
मिलने से पहले धूप व रेत में
ढूँढ़ता है एक जगह
मेरे अन्दर
एक बसेरा कल्पना का
खुद को समझाने, बड़े यत्न से, स्नेह से
किसी संदूक में रक्खे गए
हीरे की भांति
चमचमाते अनुभव
कभी तो जरूरत होगी
यंत्रणा के देह में
जब पहनाऊँगी आभूषण बार-बार.
ऐसा ही दृश्य
जिसका अनुभव
विछिन्न कर देता है एक मुहूर्त
गढ़ते क्षणों से
मुहूर्त स्पंदित फेफडे से
एक झलक नयन से
एक हँसी होठों से
एक भंगिमा प्रिय से या फिर
हृद बिंदु में
गूँथने से पहले
उस अनुभव की भांति
गायब हो जाता आसमान में
चंद्रालोक, मन के नीचे
स्वप्न अंकित कर देता चित्र रजनीगंधा का .............
सुनीता यादव
1 comment:
यष्टि और समष्टि के सर्वव्यापक स्वरूप में पृकृति के परिवेश से स्पंदित कोमल मानवीय संवेदना की सहज अभिव्यक्त के लिये आपकी लेखनी साधुवाद की पात्र है. साहित्य और शब्दों की अनबुझी प्यास के लिये बहुप्रतीक्षीत ब्लाग. हार्द्कि शुभकामनायें
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