Friday, September 23, 2016

हम और हमारे पर्यावरण संरक्षक

भारत जैसे आबादी बहुल देश के लिए, जहाँ कृषि और उद्योग के कारण धरती पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है, मनुष्य दिन-प्रतिदिन वनों की कटाई करते हुए खेती और घर के लिए जमीन पर कब्जा कर रहा है। खाद्य पदार्थों की आपूर्ति के लिए रासायनिक खादों का प्रयोग किया जा रहा है, जिससे न केवल भूमि बल्कि, जल भी प्रदूषित हो रहा है। यातायात के विभिन्न नवीन साधनों के प्रयोग के कारण ध्वनि एवं वायु प्रदूषित हो रहे हैं।  और इस दबाव के दुष्प्रभाव खतरनाक हो सकते हैं; ऐसी स्थिति में पर्यावरण के मुद्दे को गंभीरता से लेने की जरूरत है। हमारा हर एक छोटा कदम हमारी धरती और इसके भविष्य को प्रभावित करता है। यह अगली पीढ़ी के लिए  अपनी पीढ़ी के द्वारा पैदा की गई समस्यायों की ओर सुलझ  है।
    
हमारी शिकायत आम तौर पर शहरों की स्वच्छता एवं प्रदूषण को लेकर होती है कि सडक के किनारे किनारे कूड़े- कचरे ढेर लगा हुआ है, यहाँ-वहाँ केले संतरे के छिलके, कागज और चॉकलेट-बिस्कुटों के प्लास्टिक रैपर हवा में उड रहे हैं, महानगरपालिका इसे नियंत्रित करने के लिए क्यूँ कदम नहीं उठा रही है वगैरा वगैरा परंतु हम भी नाक पर रुमाल ढँक कर आगे बढ़ जाते हैं। अगर हम दो पल रुक कर जिम्मेदार नागरिक बनें और समय की गंभीर समस्याओं की ओर देखने, समझने और सुलझाने की ओर एक कदम बढ़ाएँ तो कितना अच्छा होगा!
    
जरा सोचिए! सुबह दूध लेने जाते हैं, सब्जी खरीदने जाते हैं या फिर शाम को टहलते हुए मॉल में चले जाते हैं हर बार हम थैला साथ में लेना भूल जाते हैं और दुकानदार हर बार प्लास्टिक की थैलियाँ थमा देता है। हम इसका इस्तमाल करते हैं और फिर सड़क पर फेंक देते हैं। ये प्लास्टिक कभी गायों की आंत में जाकर उनकी मौत का कारण बनती हैं तो कभी नालियों में जाम होकर बाढ़ की स्थिति पैदा कर देती हैं। इसमें स्थित रसायन भूजल में रिस कर पानी को जहरीला बना देते हैं। कभी-कभी हम यह देख कर संतुष्ट हो जाते हैं कि प्लास्टिक बैग पर बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक का लेबल लगा हुआ है तो यह  पर्यावरणफ्रेंडली है। पर यह सोच बहुत गलत है। यह भी आम प्लास्टिक जितना ही खतरनाक है। यह भी बताना उचित होगा कि महिलाओं द्वारा प्रयोग में लाने वाली सैनिटरी पैड भी प्रमुख रूप से प्लास्टिक का बना होता है। एक पैड को पूरी तरह नष्ट होने में 500 साल या इससे अधिक साल लग जाते हैं। प्लास्टिक प्रबंधन पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तो इसके खतरनाक दुष्प्रभाव का शिकार सबसे पहले हम ही होंगे। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना है  कि यह 'टिक टिक करता हुआ टाइम बम'  जिस पर शहरों के नागरिकों को तत्काल ध्यान देने की सख्त जरूरत है। मित्रों, क्या सोच रहे हैं ? अगर आप के पास कोई बैग नहीं है तो किसी भी दर्जी से, घर के बचे हुए कपड़े से, ऐसा बैग सिलवाया जा सकता है।महिलाओं को पर्यावरण स्नेहीसेनेटरी पैड जो धोने और दोबारा उपयोग मे लाए जाने योग्य  हो इस्तमाल किया जाना चाहिए। वरना प्लास्टिक एक ऐसी चीज है जिसे पूरी तरह नष्ट होने में एक हजार साल लग सकते हैं। औरंगाबाद शहर के  प्रयास युथ  फाउंडेशन के श्री रवि चौधरी ने कहा कि फ़ाउंडेशन ने आरंभ में  शहर के चारों और फैली पहाड़ियों पर जाकर प्लास्टिक स्क्रेप इकट्ठा करता रहा । पर्यावरण संरक्षण,सरीसृप के महत्त्व,जैव विविधता आदि विषयों पर जागरूकता पैदा करने के लिए शैक्षिक सत्रों का आयोजन करता रहा। देखते-देखते अन्य उपक्रम जुड़ते गए जैसे कि वृक्षारोपण, निर्माल्य संग्रह, एचआईवी ग्रसित बच्चों के साथ पर्यावरण के अनुकूल दिवाली उत्सव मनाना, पक्षियों को देखने एवं देखरेख  के लिए उत्सुकता जगाना, पंछी बचाओ, पानी बचाओ ,प्राकृतिक नज़ारे का दौर, आदि अन्य पर्यावरण संबंधी कार्यक्रम में लोगों को शामिल कर जागरूकता पैदा करता रहा।   एक और संस्था है द अगली औरंगबदकर्सजो कि 'स्पोटफिक्स' यानी स्थान का चुनाव करती है और ये  स्थान सार्वजनिक होते हैं जो  कूड़े,मलबे, पेशाब, सार्वजनिक अदरकार संपत्ति से भरे हुए रहते हैं । इन्ही स्थानों की सफाई करने का जिम्मा ये उठा लेती  है। इसे एक दिन का काम न मानकर , सफाई के बाद भी  देखा जाता है कि कोई फिर से उसे गन्दा न कर दे। इस संस्था के सदस्य श्री सौरभ जामकर और श्रीमति मीनल अतुल नाईक ने कहा अभी तक लगभग बीस स्पॉट की सफाई हो चुकी है जिनमें पचहत्तर प्रतिशत जगह अच्छी हालात में हैं। साफ-सफाई के अलावा  यह टीम वृक्षारोपण भी करती रही।  विचार परिवर्तन  तथा सामजिक व्यवहार परिवर्तन की दिशा में उठाया गया यह कदम वास्तव में शहर की सुंदरता बढ़ाने में सक्षम हो रहा है। 
  
अगर कचरे के बारे में सोचें तो हमें लगता है कि काले रंग की प्लास्टिक में घर का कूड़ा कचरा घर से बाहर रख दिया कि हमारी ज़िम्मेदारी खत्म। इसके बाद उस कचरे का क्या हश्र होता है इस बात से सभी अनभिज्ञ । शायद यह सोचना हमारे हिस्से में है ही नहीं । हमारी सोच ही शहरी गंदगी का हिस्सा है! हमारे घरों से कचरा बाहर की खाली जमीन पर फेंका जाता है जिससे आस-पास रहने वाले लोगों पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है। इस्तमाल कर फेंके गए अंधाधुंध प्लास्टिक, जैवप्रदूषक, मिश्रित कचरे से पैदा हुए रसायन - केमिकल्स - कई तरह की बीमारियाँ पैदा करते हैं और जमीन की तलहटी में पानी के साथ मिलकर पीने के पानी तक को प्रदूषित कर देते हैं। ऐसा पानी न घरेलू इस्तेमाल लायक रहता है, न पीने लायक। जहां कभी चिड़ियाँ चहचहाती होंगी वहाँ एक परिंदा भी नहीं दिखाई देता , इंसान की तो हाल ही बुरा है । जाए तो जाए कहाँ , समझेगा कौन यहाँ?
  
अब पेय जल  की  बात ही ले लीजिए। कहने को तो प्रकृति द्वारा यह हमें बहुतायत में यह निःशुल्क प्राप्त है लेकिन इन दिनों शहरों मे पेय जल की किल्लत आम बात है। शहरों में अत्यधिक आबादी होने के कारण फ्लैट में कम स्थान पर जल की आवश्यकता अधिक होने के कारण डीप बोरिंग निर्माण करते हुए वहाँ के भूमिगत जल का दोहन किया जा रहा है। फ्लैट में रहने वाले लोगों के दैनिक क्रियाकलापों से उत्पन्न कचरे को उद्योगों के अत्यधिक निर्माण से उनसे निकलने वाले दूषित जल, बचे हुए, रसायन कचरा आदि को बस्तियों के कचरे को, नालियों के रास्ते नदी में बहा दिया जाता है। नदियों, तालाबों के जल एवं भूमिगत जल को तो मनुष्यों ने प्रदूषित किया ही है। प्रदूषित करने में इसने सागर के जल को भी नहीं छोड़ा।। विकसित देश प्रायः अपने देश की गंदगी व ई-कचरा को समुद्र में डाल देते हैं, जिससे जल बुरी तरह से दूषित होता है। कुछ जीव मर जाते हैं और बाकी जल-जीवों के स्वास्थ्य पर भी असर होता है। जमीन , जंगल, जानवर की तरह पानी भी कम हो जाएगा तो हमारा भविष्य अन्धकार हो जाएगा इसलिए हमारा पहला कर्तव्य होना चाहिए कि हम जल को प्रदूषित न करें। जल के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं कर सकते हैं। पेय जल का  संकट बढ़ता जा रहा है. कुँए , बावड़ियां, तालाब आदि के  गहरीकरण न होने से वे सूख रहे हैं। जिससे पेय जल के स्रोत में कमी आ रही है।
  
कई देश और राज्य जल  के वितरण को लेकर आपस में लड़ रहे हैं। अपना ही शहर ले लीजिए, गोदावरी नदी का जल जब  नासिक और नगर से होकर  औरंगाबाद आता है, तब जितनी मात्रा में हमें मिलना चाहिए , मिल नहीं पाता। अतिरिक्त मात्रा में जल चले जाने के कारण औरंगाबाद को न्याय नहीं मिल पा रहा है। संघर्ष आज भी जारी है। इस संघर्ष के जन्मदाता  महाराष्ट्र में पर्यावरण-पूरक जलव्यवस्थापन, समन्यायी जलवितरण, एवं जल-पुनर्प्रक्रिया अभियानों के प्रस्थापित "लोकाभिमुख जलधोरण संघर्ष मंच" के संस्थापक सदस्य तथा औरंगाबाद स्थित निसर्ग मित्र मंडळ  स्वयंसेवी संगठन के संस्थापक, एवं भूतपूर्व अध्यक्ष श्री विजय दिवाण का कहना है पहले जहाँ औरंगाबाद की शहरी सीमा 300 वर्ग किलोमीटर से कम हुआ करती थी आज विकास के नाम पर 1800 वर्ग किलोमीटर होने की  संभावना है । पंद्रह लाख की आबादी बढ़कर अब साठ लाख तक हो जाएगी । सवाल यह है कि इतने सारे लोगों के लिए आवश्यक जल की आपूर्ति कहाँ से होगी ? पहले ही जल की कमी है, मराठवाडा में वर्षा की कमी है, बसाल्ट पत्थर होने की वजह से भूजल का संरक्षण नहीं हो पता। मौसमी झील व  तालाबें दिसंबर तक सूख जाती हैं। जायकवाड़ी बांध में पानी का स्तर इतना कम है कि अकेले बांध का पानी सभी की जरूरतों को पूरा करने में आज भी असमर्थ है। ऐसे में गोदावरी से कम जल प्राप्त होना चिंतित विषय है। आस-पास के 70 प्रतिशत लोग जो खेती पर निर्भर हैं नगरीकरण के नाम पर अपनी जमीन बेचेंगे जहां फ्लैट्स, मॉल, मनोरंजन पार्क आदि बनेंगे, और आबादी बढ़ेगी, और पेय जल की आवश्यकता होगी, लेकिन क्या सभी को जल  उचित मात्रा में आबंटन हो सकेगा? आखिर उपजाऊ जमीन, खेती, वन, पानी को जितना नष्ट करेंगे पर्यावरण को उतनी हानि पहूँचेगी। हम जैसे लोगों की हानि होगी। विकास के नाम पर अधिकतर पूंजीपति लाभान्वित होंगे। किसान या आम आदमी नहीं। इसलिए जल की बचत, शुद्धीकरण एवं समान  वर्गिकरण आवश्यक है। सच, क्षणिक मात्र सोचें तो हमारा भविष्य विकास के नाम पर हमारी पीढ़ी को कहाँ लेकर जा रहा है? उठो, जागो, विकास सोच में लाना जरूरी है। जल बचाओ, अपना कल बचाओ। 
  
आज पेय जल को ही ले लीजिए बोतल-बंद पानी के हम इतने आदि हो चुके हैं कि बाहर कहीं घूमने फिरने जाते हाँ तो बेधड़क बोतल-बंद पेय जल  खरीदने लगते हैं। रेस्तराँ और होटलों में फिल्टर या एक्वागार्ड लगे होते हैं फिर भी वेटर को बोतल बंद पानी ऑफर करने की जल्दी रहती है। बोतलबंद पेय जल प्लास्टिक कचरे की बढ़ोतरी में न सिर्फ इजाफा करता है बल्कि आसपास के प्राकृतिक सौंदर्य को बिगाड़ता भी है।  जहाँ एक ओर गाँव वाले अपने सिंचाई के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहाँ दूसरी ओर बड़ी-बड़ी कंपनियाँ आर्थिक मुनाफा के चक्कर में धरती से पानी सोख लेते हैं, बोतल में बंद कर पैसे कमाते हैं। जितनी बार हम बोतलबंद पेयजल की खरीदी  करते हैं, एक गलत प्रवृत्ति का समर्थन और गाँव के खेतों के सिंचाई अधिकारों का हनन करते हैं। इसका समाधान आसान है! जहाँ भी हम जाएँ, हमारे साथ पानी की एक बोतल हो, और जब भी संभव हो हम इसे फिर से भर लें। प्लास्टिक की बेहिसाब खाली बोतलें फेंकने में इजाफा न करें।
  
आजकल बड़ी संख्या में इलेक्ट्रानिक सामग्रियों का उपभोग हमारे द्वारा किया जाता है, जिसमें कोई भी इलेक्ट्रानिक सामान, जैसे - लैपटाप, पेनड्राइव, डीवीडी, फ्लापी डिस्क, सीएफएल बल्ब और ट्यूबलाइट आदि शामिल हैं। इन इलेक्ट्रानिक उत्पादों में बेहद विषाक्त रसायन होते हैं, जैसे सीसा और पारा, जो स्वास्थ्य को जबरदस्त क्षति पहुँचाते हैं। इनकी वजह से बच्चे जन्म से ही असामान्य या विकलांग पैदा होते हैं। इसलिए इस अपशिष्ट का उचित निपटारा बहुत जरूरी है।
  
दरअसल इस दुष्चक्र को बदलने के लिए हमें आखिर क्या करना होगा? आइए एक छोटी-सी उपदेशात्मक कथा से प्रेरित होते हैं ।
भगवान् बुद्ध के एक अनुयायी ने कहा , ” प्रभु ! मुझे आपसे एक निवेदन  है।
बुद्ध: बताओ क्या कहना है ?
अनुयायी: मेरे वस्त्र पुराने हो चुके हैं। अब ये पहनने लायक नहीं रहे। कृपया मुझे नए वस्त्र देने का कष्ट
करें !
बुद्ध ने अनुयायी के वस्त्र देखे, वे सचमुच बिलकुल जीर्ण हो चुके थे और जगह-जगह से घिस चुके थे
इसलिए उन्होंने एक अन्य अनुयायी को नए वस्त्र देने का आदेश दे दिए। कुछ दिनों बाद बुद्ध अनुयायी के घर पहुँचे।
बुद्ध :क्या तुम अपने नए वस्त्रों में आराम से हो ? तुम्हें और कुछ तो नहीं चाहिए ?
अनुयायी: धन्यवाद प्रभु।  मैं इन वस्त्रों में बिलकुल आराम से हूँ और मुझे और कुछ नहीं चाहिए।
बुद्ध: अब जबकि तुम्हारे पास नए वस्त्र हैं तो तुमने पुराने वस्त्रों का क्या किया ?
अनुयायी: मैं अब उसे ओढने के लिए प्रयोग कर रहा हूँ।
बुद्ध: तो तुमने अपनी पुरानी ओढ़नी का क्या किया?
अनुयायी: जी मैंने उसे खिड़की पर परदे की जगह लगा दिया है।
बुद्ध: तो क्या तुमने पुराने परदे फ़ेंक दिए?
अनुयायी: जी नहीं , मैंने उसके चार टुकड़े किए और उनका प्रयोग रसोई में गरम पतीलों को आग से उतारने के लिए कर रहा हूँ।
बुद्ध: तो फिर रसॊइ के पुराने कपड़ों का क्या किया ?
अनुयायी: अब मैं उन्हें पोछा लगाने के लिए प्रयोग करूँगा। .
बुद्ध: तो तुम्हारा पुराना पोछा क्या हुआ?
अनुयायी: प्रभु वो अब इतना तार -तार हो चुका था कि उसका कुछ नहीं किया जा सकता था, इसलिए मैंने उसका एक -एक धागा अलग कर दिए की बातियाँ तैयार कर लीं ….उन्ही में से एक कल रात आपके कक्ष में प्रकाशित था।
बुद्ध अनुयायी से संतुष्ट हो गए। वे प्रसन्न थे कि उनका शिष्य वस्तुओं को बर्वाद नहीं करता और उसमे
समझ है कि उनका उपयोग किस तरह से किया जा सकता है।

मित्रों, आज जब प्राकृतिक संसाधन दिन प्रतिदिन कम होते जा रहे हैं ऐसे में हमें भी कोशिश करनी चाहिए कि चीजों को बर्वाद न करें और अपने छोटे-छोटे प्रयत्नों से इस धरा को सुरक्षित बना कर रखें।
  
इस प्रकार जिसे हम खराब कहकर अपदस्थ कर देते हैं, उसमें से कचरा कुछ भी नहीं होता। फेंकी जाने वाली हर चीज का मूल्य होता है।  थोड़ी-सी समझ से कचरा प्रबंधन में जिम्मेदारी बरत कर अपनी रसोई में सिर्फ दो डस्टबिन रखा जा सकता है - एक जैवअपशिष्ट पदार्थों जैसे - तरकारी, छिलके, खुरचन, बचे हुए खाद्य अपशिष्ट एवं दूसरा सूखे पदार्थों जैसे - कागज, प्लास्टिक, धातु, पन्नी, खाद्य पैकेजिंग के रैपर। सूखे और गीले कचरे को अलग रख कर इस स्थिति से निपटा जा सकता है।  जो खाद्य पदार्थ - केले, पपीते, फलों और सब्जियों के छिलके हम फेंक देते हैं, उन्हें पेड़-पौधों के उपयोग में आने वाली बेशकीमती खाद के रूप में तब्दील किया जा सकता है। इन छिलकों को अगर हम घर के एक गमले में मिट्टी की तहों से दबाकर रखें तो तीन से चार सप्ताह के अंदर यह तथाकथित कचरा कीमती खाद में बदल जाता है जो पूरी तरह ऑर्गेनिक और पेड़-पौधों के लिए प्राणदायक है।

प्लास्टिक और कागज हम यूँ ही फेंक देते हैं, उसे भी रीसाइकल कर फिर से उपयोग में लाया जा सकता है, लेकिन उन्हें अगर खाने के अपशिष्ट पदार्थ से मिश्रित कर दिया गया तो आसानी से उसे रीसाइकल - पुनःसंस्कारित - नहीं किया जा सकेगा। सूखा कचरा किसी भी स्थानीय कबाड़ी वाले को दिया जा सकता है। आजकल कई शहरों में ड्राई अपशिष्ट पदार्थों के लिए घरेलू संग्रह कार्यक्रम भी आयोजित किए जा रहे हैं। सूखा सामान एकत्र किया जाता है। प्लास्टिक दूसरी कंपनी को बेच दिया जाता है,फेंके गए प्लास्टिक से कोलतार बनाया जाता है। सोच कर देखें अगर आप के इस्तेमाल किए गए प्लास्टिक की तरह ही पूरे शहर में बिखरे हुए सारे प्लास्टिक का इतना ही उपयोगी इस्तेमाल हो पाता। औरंगाबाद के सिविक रेसपोंस टीम (सीआरटी) ने इसका हल निकालने का प्रयास किया। इस टीम की सदस्या श्रीमति सनवीर छाबड़ा ने यह जानकारी दी कि किस प्रकार टीम पूरी सक्रियता के साथ अपने शहर के विभिन्न इलाकों में ठोस निरुपयोगी पदार्थों के कुप्रबंधन के प्रभाव तथा उनके समाधान के तरीकों से लोगों को अवगत कराती है।  कचरा- मुक्त इलाका में विशवास रखने वाली यह संस्था कचरा से खाद की निर्मिति प्रकल्प में लोगों को शामिल कराती है। इस टीमको सिड्को वालुज  में जब कचरा- प्रबंधन का कार्य सौपा गया था, इन्होने बड़ी सफलता से 25000 बासिन्दों तथा 40 सफाई कर्मचारियों को न ही प्रशिक्षित किया बल्कि एक सिस्टम बनाया जिससे लोग सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट से अवगत हो सके। इनकी सफलता देखकर नगर निगम ने माझी सिटी टकाटकपरियोजना के हेतु इस संस्था का  चयन किया। बड़ी-बड़ी कंपनियाँ जैसे की ग्राइंग मास्टर एवं बजाज भी  इस टीम को वित्तीय सहायता देने के लिए आगे बढ़े एवं  आशा है इस प्रकार शहर सुंदर बनने की दिशा में काम होता रहेगा।
   
 मित्रों इसमें कोई संदेह नहीं कि जनसंख्या में  लगातार वृद्धि होती रहेगी। धीरे-धीरे रहने का स्थान कम पड़ेगा, वनों की निरंतर कटाई से न केवल वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़कर ऑक्सीजन की मात्रा घटती रहेगी, बल्कि जमीन में रहने वाले जीव-जंतुओं का भी संतुलन भी बिगड़ता जाएगा। स्थान एवं जलावन के लिए मनुष्य वनों की कटाई करता रहेगा। आखिर इसका परिणाम क्या होगा सोच कर भी मन सिहर उठता है। मनुष्य द्वारा विभिन्न प्रकार के तकनीकी उपकरणों का सहारा लेकर विस्फोट, गोलाबारी, युद्ध आदि किए जाते हैं। विस्फोट होने से अत्यधिक मात्रा में धूलकण वायुमंडल में मिल जाते हैं और वायु को प्रदूषित करते हैं। बंदूक का प्रयोग एवं अत्यधिक गोलीबारी से बारूद की दुर्गंध वायुमंडल में फैलती है। तकनीक संबंधी नवीन प्रयोग करने के क्रम में कई प्रकार के विस्फोट किए जाते हैं इस दरम्यान हानिकारक गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन के कारण एसिड रेनहोती है, जो मानव के साथ-साथ अन्य जीवित प्राणियों तथा कृषि-संबंधी कार्यों के लिए घातक होती है। इसके अलावा विभिन्न छोटे-बड़े उद्योगों की चिमनियों से निकलने वाले धुएं, चमड़ा और साबुन बनाने वाले उद्योगों से निकलने वाली दुर्गंध-युक्त गैस वातावरण को प्रदूषित करते हैं ।  सीमेंट, चूना, खनिज आदि उद्योगों में अत्यधिक मात्रा में उड़ती धूल जब वायु में मिल जाती है तब प्रायः वहां काम करने एवं रहने वालों को रक्तचाप हृदय रोग, श्वास रोग, आंखों के रोग और टी.बी. जैसे रोग होने की संभावना बढ़ जाती है।
   ऐसे में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ाने हेतु एक मात्र उपाय है वृक्षारोपण । ये वृक्ष ताजी हवा देते हैं  भूमि की ऊपरी परत को तेज वायु से उड़ने तथा पानी में बहने से बचाते हैं। वृक्षारोपण कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाना चाहिए। परती भूमि, पहाड़ी क्षेत्र, ढलान क्षेत्र सभी जगह पौधा रोपण करना जरूरी है।  तभी लगातार  जो जंगल कट रहे हैं, जिससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है, वह संतुलन बनेगा। तभी वनस्पति सुरक्षित रह सकती है। वन संपदा पर्यावरण के लिए आवश्यक है। इस दिशा में हमारे शहर औरंगाबाद के ‘we’ ग्रुप की पहल अच्छी रही है। कई सरकारी एवं 35 से भी अधिक गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर इस टीम ने राष्ट्रीय राज्य परिवहन परियोजना के अंतर्गत सड़क के किनारेशहर के बाहरी सीमा पर मौजूद गोगा बाबा पहाड़ी, 4000 पौधे लगवाए। ड्रिप सिंचाई से उनकी देखभाल भी की है। इस बारे में मेघना बड़जात्या का कहना है कि सारोला में  प्राकृतिक सैर के समय  ट्रेक्किग ग्रुप समूह को 30000 बीज वितरित किए गए थे । एक अन्य संस्था है शिवनेरी मित्र मण्डल जिसने न सिर्फ अपने परिसर में ही  वृक्षारोपण किया बल्कि परिसर के बाहर विविध कालोनी में भी किया और इतना ही नहीं  55 कालोनी में 56 ग्रुप तैयार किया जो स्वच्छता का खयाल भी रखते हैं और  रोज सुबह एक से डेढ़ घंटा उन पेड़-पौधों की देखभाल भी करते हैं। इस सिलसिले में नाना अगाल्वे जी का कहना है कि उनकी टीम 200 लिटर की टंकी लेकर कालोनी से पानी मांगते हैं और 20-20  पेड़ों को पानी डालते हैं। एक कदम और बढ़ाकर गजानन मंदिर इलाका, सेक्टर 2 चिकलथाना जैसे इलाके में जापानी प्रतिनिधि मण्डल के साथ संयुक्त रूपमें काम भी किया । 
   जनसंख्या वृद्धि से अनाज की माँग भी बढ़ गई है। किसान अत्यधिक फसल उत्पादन के लिए रासायनिक खादों का इस्तेमाल करते हैं, विभिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते हैं, ताकि उनकी फसल अच्छी हो, फसल में कीड़े न लगें, इसलिए कीटनाशकों का भी छिड़काव किया जाता है। परंतु इन सभी कीटनाशक या रसायन कितनी मात्रा में इस्तमाल होनी चाहिए इस विषय से बहुत-से किसान अंजान होते हैं।   'खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ), रोम, इटली में एक सलाहकार के रूप में तथा मोनसेंटो प्राइवेट लिमिटेड में एक परीक्षक  और ऑपरेशन प्रबंधक के रूप में  काम करनेवाली महिला डॉ॰ अपर्णा तिवारी का कहना है मराठवाड़ा में, कई किसानों को हर हफ्ते आत्महत्या करते हुए देखा गया है ।जब उन्होने विस्तार से अवलोकन किया तो पाया कि सूखा, ऋण के साथ-साथ  कीटनाशकों के दुरुपयोग का परिणाम भी उनकी आत्महत्या का कारण है। मीडिया ने सूखा और ऋण के अलावा शायद ही कभी कीटनाशकों के दुरूपयोग को कारण बताया हो। अतः इन्होने कीटनाशकों का  मिट्टी, पर्यावरण और किसान के स्वास्थ्य पर प्रभाव के बारे में बता कर किसानों में जागरूकता लाने का प्रयास किया। खाद्य पदार्थों के उत्पादन में वृद्धि हो, इसके लिए रासायनिक उर्वरकों  की योग्य मात्रा एवं कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खाद का इस्तेमाल करने के लिए कहा। । अब तक, चारों ओर 50-60 परिवार इस पहल से लाभान्वित हुए है। इतना ही नहीं जिनके के साथ मिलकर काम करते हैं उन्हे  परामर्श, वित्तीय सहायता और  खुदरा बाजार के साथ जोड़ने कर सशक्त किया।
   पिछले तीन सौ सालों के दौरान औजारों और टकनोलोजी  के अभूतपूर्व विकास के कारण इंसान ने धरती के हर हिस्से को अपनी आर्थिक गतिविधिओं की चपेट में ले लिया है। और इस दौरान पर्यावरण के विनाश और जीवों की विलुप्ति की दर में तेजी वृद्धि हुई है। आज पशु-पक्षी जगत संकट में हैं। तमाम 1700 प्रजातियों में से अनेक खतरे की बिन्दु पर पहुँच रही हैं। ये प्रकृति के संतान प्रकृति के साथ जीवन आरंभ करते हैं खुले आसमान के नीचे किसी भी वृक्ष की छाया में अपना रैन-बसेरा कर लेते हैं। यह वर्ग कीट-पतंगों को खाकर हमारे वातावरण को शुद्ध रखते हैं। पक्षी निहारना जहाँ हमें शिक्षा देते हैं वहीं तनाव से मुक्त भी कराते हैं । सोलापुर में रहनेवाले  पक्षीविद डॉ॰ व्यंकटेश मेतन का कहना है  अगर पक्षी नहीं बचेंगे तो प्राकृतिक संतुलन बरकरार नहीं रहेगा और मनुष्य भी नहीं बचेगा। पेड़ों के बीजों को धारण करता पक्षी सृष्टि संवर्धक के कारण हैं। अतः इनकी देखभाल की आवश्यकता है। स्थानीय एनजीओ सलीम अली झील संरक्षण फोरम की ओर से  डॉ. अरविंद पुजारी और उनकी टीम ने सर्दियों के मौसम में  आनेवाले लगभग 20000 से 50000 प्रवासी पक्षियों की  सुरक्षा हेतु न्यायालय का द्वार खटखटाया क्योंकि कि सदस्यों ने पाया था कि औरंगाबाद नगर निगम झील के आसपास प्रस्तावित जापानी शैली के बगीचे पर सौंदर्यीकरण एवं गतिविधि विकास को बढ़ावा दे रहा था। इससे जैव विविधता को नुकसान पहुँच सकता था। पर्यावरण रिसर्च फाउंडेशन और शिक्षा अकादमी के अध्यक्ष श्री दिलीप यार्दी  की टीम ने भी पक्षी संरक्षण के बारे में विभिन्न उपक्रमों द्वारा जनजागृति फैलाई। वे सलीम अली सरोवर बचाओ  मुहिम के अग्रगण्य सारथी पर्यावरण विशेषज्ञ भी हैं, पक्षी मित्र भी हैं जिनकी बदौलत आज सलीम अली झील पक्षियों के लिए माइका है। वृक्षों की कटाई की रोक, पक्षी मित्रता, स्कूलों और कालेजों में  पर्यावरण जागरूकता के कई  अनगिनत कार्यक्रम,किसानों का प्रशिक्षण जैसे अनेक उपक्रम इस टीम ने की है।
   आइए अब बारी है ध्वनि-प्रदूषण की । शाम को टहलतेहुए जरा चले जाइए एक घंटा घूम आइए  मोटर गाड़ियों, स्वचालित वाहनों, लाउडस्पीकरों, हेलीकाप्टर, हवाई जहाज सबकी आवाज सुननेको मिलेगी।  विभिन्न प्रकार के हॉर्न से मन ऊब  जाएगा। लाउडस्पीकर की लगातार आवाज से आप परेशान हो उठते हैं। जरा सोचिए उन लोगों के बारे में जो कल-कारखाने में  काम करते हैं और लगातार उपकरण एवं मशीनों की आवाजें सुनते रहते हैं। अधिक शोर के कारण सिरदर्द, थकान, अनिद्रा, श्रवण क्षमता में कमजोरी, चिड़चिड़ापन, उत्तेजना, आक्रोश आदि रोग उत्पन्न होने लगते हैं। इस प्रकार के प्रदूषण के कारण उपापचयी प्रक्रियाएं प्रभावी होती हैं। संवेदी एवं तंत्रिका तंत्र कमजोर हो जाता है। मस्तिष्क तनाव ग्रस्त हो जाता है तथा हृदय की धड़कन और रक्तचाप बढ़ जाता है। पाचन क्रिया कमजोर हो जाती है। इसलिए अत्यधिक ध्वनि से दूर रहना चाहिए। इसका कारण यह है कि 80 डेसिबल से अधिक शोर होने पर मनुष्य में अस्वस्थता आ जाती है या बेचैनी होने लगती है तथा 130-140 डेसिबल का शोर अत्यंत पीड़ादायक होता है। इससे अधिक शोर होने पर मनुष्य में बहरा होने का खतरा होता है। अतः  वाहनों में लगे हार्नों को तेज बजाने से रोका जाना चाहिए, उद्योगों एवं कारखानों को शहरों या आबादी से दूर स्थापित करना चाहिए। कम शोर करने वाले मशीनों-उपकरणों का निर्माण एवं उपयोग किए जाने पर बल देना चाहिए।घर में टी.वी., संगीत संसाधनों की आवाज धीमी रखना चाइए, कार का हार्न अनावश्यक न बजाना चाहिए, लाउड स्पीकर का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा,शादी विवाह में बैंड-बाजे-पटाखे आदि व्यवहार में न लाए जाना चाहिए। अब बैड-बाजा की बात आ ही गई है तो बता दूँ एक युवा हैं जिनका नाम है श्री  विवेक ढाकने। पिछले 5 सालों से वे  लगातार एम॰टी॰डी॰सी (महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम ) का ध्वनि-प्रदूषण के प्रति उदासीन रवैये के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे। आखिर कार एक दिन उनकी गुहार सुन ली गई। बात दरअसल यह थी कि पिछले पाँच सालों से वेडिंग टूरिजिम के नाम पर एम॰टी॰डी॰सी के परिसर में आए दिन कुछ न कुछ प्रोग्राम्स होते रहते थे,परिणाम स्वरूप उस परिसर को लगकर जो पगारिया कालोनी है उसमें बसनेवाले लोग इस ध्वनि-प्रदूषण का शिकार हो रहे थे। कई बार क्षेत्रीय पर्यटन कार्यालय,मुंबई के मुख्य कार्यालय , स्थानीय पोलिस स्टेशन, नगर निगम आयुक्तालय तथा महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रक मण्डल में भी शिकायत करने के बाद जब यह मामला सुलझ नहीं रहा था तो तब इन्हें राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण की  शरण लेनी पड़ी थी। आ उस कालोनी में शांति है। बधाई के पात्र हैं विवेक जी !आशा है आगे भी पर्यावरण मित्र   बनकर रहेंगे।
      इस प्रकार मित्रों सब कुछ जानकर समझकर  भी मनुष्य समझना नहीं चाहता है । मनुष्य के इन्ही मूर्ख आदतों से पृथ्वी पर हमारी स्वाभाविक रूप से सुंदर वातावरण दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है। जीवन की गुणवत्ता दिन-ब-दिन गिरती जा रही है। हर किसी को अपने दैनिक जीवन में स्वास्थ्य सम्बंधि खतरों का सामना करना पड़ रहा है। औद्योगिक कचरे और अन्य गतिविधियों से उत्पन्न हुए विभिन्न प्रकार के प्रदूषक हमारे प्राकृतिक संसाधनों जैसे की मिट्टी, हवा और पानी को दूषित कर रहे हैं| हवा, पानी, मिट्टी में मिश्रित होने के बाद ये मानव जाति और जानवर प्रणाली को प्रभावित कर रहे है। इसके अलावा वैश्विक ताप के इस युग में, मौसम का मिजाज निरंतर खराब होता जा रहा है। हमारे ऊर्जा के स्रोत कम होते जा रहे हैं। इन सभी विषयों के प्रति जानकारी देने तथा जागरूकता बढ़ाने के लिए औरंगाबाद के रोटरी क्लब के जिला सचिव डॉ॰ सुहास वैद्य का कहना था कि क्लब किसी न किसी संस्था के सयुंक्त तत्वावधान से हर साल वसुंधरा अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के जरिए पर्यावरण, वन्य जीवन, ऊर्जा, वायु, और पानी आदि विषयों पर राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय फिल्में प्रदर्शित किए जाते हैं। इसके अलावा जो व्यक्ति पर्यावरण के बारे में जागरूकता फैलाते हैं उन्हे वसुंधरा सम्मान से सम्मानित भी किया जाता है। इसका मुख्य संदेश पर्यावरण से संबन्धित सामयिक मुद्दों का विश्लेषण मात्र है।  औद्योगीकरण की वजह से जीवन रक्षा प्रणाली परिवर्तित हो रही है। मानव लोभ और कुछ भी करने की आज़ादी, गंभीर पतन और संसाधनों के कुप्रबंधन की ओर ले जा रही है।  यह बड़े सामाजिक मुद्दे को जड़ से खत्म करने और इससे निजात पाने के लिए सार्वजनिक स्तर पर सामाजिक जागरूकता कार्यक्रम की आवश्यकता है।  व्यक्तिगत एवं सामूहिक स्तर पर हमें पर्यावरण सुरक्षा पर ध्यान देना होगा। स्थानीय पर्यावरण मित्रों के साथ संपर्क स्थापित कर अपनी धरती को बचाना होगा।
 सुनीता प्रेम यादव
 औरंगाबाद


10 comments:

chakrapani said...

Yes 4 now

chakrapani said...

Yes 4 now

Rohit Singh said...

सुनीता जी बहुत ही महत्वपूर्ण विषय पर आपने विस्तार से लिखा है। इतना लंबा लेख शुरू में पढ़ने का मन नहीं था। मीडिया में हूँ तो अक्सर ऐसे मुद्दे पढ़ने को मिल जाते हैं। फिर अभी रात को ऑफिस से आकर पूरा पढ़ा। बिंदुवार अपने बात कहता हूँ।
1-महात्मा बुद्ध की कहानी ने एक बार फिर मुझे याद दिलाया की मुझे अपने पुराने वस्त्रों आदि का क्या करना है।
2-वेस्ट मैनजमेंट मैंने कई बार पढ़ा है। खासकर जब पुरानी जीन्स, वनस्पति घी के खाली डिब्बे, प्लास्टिक की थेली का इस्तेमाल करना होता था। ये मैनेजमेंट मैँने लाइफ में कई बार किया है, पर छूटे स्तर पर।
3-वैसे आपको भी शायद पता हो की बचपन में बड़े बुजुर्ग (मेरे लाइफ में मेरी बुआ और मेरे पिता) ऐसे काम करते थे और हमें वो सीखा गए जिसके लिए आजकल डिप्लोमा आदि होने लगे हैं।
4-जीवन की आपाधापी और पैसे की जरूरत ऐसे काम से काफी दूर कर दिया। अब सब सीखा हुआ गायब है।
5-इसमें शक नहीं की हम ऐसे बम पर बैठे हैं जो कहीँ भी कभी भी फटने लगा है। जहाँ सुखा पड़ता हैब वहां भी प्रकृति को कोस कर बैठ जाते हैँ।

फिलहाल रुकता हूँ। देखिये कैसे और कब दुबारा जुड़ता हूँ इस काम से। कई आईडिया हैं वेस्ट मैनजमेंट के जो मैंने सीखे और अजमाए हैं।
😊😊😊😊ये तो उल्टा पूरी पोस्ट ही मैंने लिख दी है😂😂😂😂
नोट-सैर वाले व्हाट्स एप्प ग्रुप से यहाँ पहुँचा हूँ।

Unknown said...

Well written madam. My minimal expectation is it sensitise few like me. Thanks.

Unknown said...

Well written madam. My minimal expectation is it sensitise few like me. Thanks.

Dr. sunita yadav said...

तह दिल से धन्यवाद ज्ञापन करती हूँ मेरे मामाजी को जिनकी वजह से आज इस मंच पर हूँ। रोहोताश जी आपकी लेखनी को सलाम आपके विचारों को नमन! भूषण संवेदनशील व्यक्ति एक संवेदनशील को खींच लाता है☺

कविता रावत said...

बहुत अच्छी प्रेरक और जागरूक कराती प्रस्तुति ..

Jyoti Dehliwal said...

बहुत बढ़िया विचारणीय और जागरूकता फैलाती पोस्ट।

Unknown said...

Best of luck for your next mesborised blog

This is ajeet blog said...

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